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________________ जिनदत्त सूरि १४५ चुका है। इनकी गरु परंपरा भी स्पष्ट नहीं है न रचना का कोई विवरण-उद्धरण दिया गया है।' जिनदास--आप अंचलगच्छ के कल्याणसागर सूरि के श्रावक शिष्य थे। आपने व्यापारीरास, पुण्यविलास रास और जोगी रास रचा है जिनका विवरण-उद्धरण दिया जा रहा है। व्यापारी रास (सं० १७१९ मागसर ६, मंगलवार) का आदि -- स्वर्गतणां सुख ते लहे, जे करे जीव यतन्न; आप समोवउ लेखवे, वे प्राणी धन्य धन्य । युग व्यापारी जीवडो वंदर चोराशी लाख, पोठीडा शुं परवर्या नवनव नवलि भाख । हाट श्रेणी हीरे भर्या, मांहे माणेक लाभंत, सांचा लहेशो शोधी करी; कूड़ाकांचलहंत । रचनाकाल-संवत सतर सोहामणो ओगणीसमो अति सारो रे, मागसिर छठ भृगुवासरे, अह रच्यो अधिकारो रे । गुरुपरंपरा ---श्री अंचल गच्छे राजीओ कल्याण सागर सूरिराया रे, कर जोड़ी जिनदास कहे अमें प्रणमुं ते गुरुपायां रे । यह रचना भीमसी माणेक ने प्रकाशित की है। इसकी अन्तिम पंक्तियाँ देखिये-- त्रिविध संसार तेणी परे, जिम मे त्रण्ये व्यापारी रे, दोसी वैरागर जीविया हार्यो जे जूठ जूआरी रे । जोगीरास सं० १७६७, रचनाकाल सम्बन्धी उद्धरण उपलब्ध न होने के कारण रचना-समय निश्चित नहीं है क्योंकि इसकी सं० १७०६ की हस्तप्रत प्राप्त है। पुण्य विलास रास का भी रचनाकाल अज्ञात है। इसमें जिनदास नामक साधु को रचयिता कहा गया है इसलिए यह भी अनिश्चित है कि जिनदास श्रावक थे अथवा साधु । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २४३ (प्र०सं०) - भाग ४ प ० ३५७ (न० सं०)। २. वही भाग २, पृ० १८७, भाग ३, पृ० १२१४ (प्र० सं०) और भाग ४, पृ० २८५ (न० सं०)। १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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