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________________ जयसागर अनिरुद्ध हरण जे में कर्यु, दुखहरण में सार; सांभलता सुख ऊपजे, कहे जयसागर ब्रह्मचार ।' इनसे पूर्व भी एक ब्रह्म जयसागर (सं० १५८०-१६५५) हो चुके हैं जो भट्टारक रत्नकीति के प्रमुख शिष्य थे। दूसरे एक और जयसागर उपाध्याय हैं जो खरतरगच्छीय जिनराजसूरि के शिष्य थे। इनकी एक रचना २४ जिन स्तोत्र (१४ गाथा) का उल्लेख किया जा चुका है। मोहनलाल दलीचन्द देसाई कृत जैन गुर्जर कवियो के नवीन संस्करण में एक जयसागर को १८ वीं सती में दर्शाया गया है परन्तु न तो उनकी गुरु परंपरा बताई गई है और न रचनाकाल दिया गया है, केवल उनकी एक रचना २४ जिनस्तवन (१५ कड़ी) का उल्लेख कर दिया गया है। लगता है कि ये पूर्ववर्णित खरतरगच्छीय जयसागर ही हैं जिनकी २४ जिनस्तवन को पहले १४ और इसमें १५ कड़ी का बता कर इनका स्वतंत्र और भिन्न रूप से उल्लेख कर दिया गया है । इसका आदि और अंत मिलान करने के लिए दे दिया जा रहा है। आदि-पहिलउं पणमुं आदि जिणंद, जिणि दीठइ मन परमाणंद । पूजऊं अजितनाथ जिनराय, झलहलंत कंचणमय काय । अंत-चंदन केसर नइ कप्पूरीइं जे जिन पूजइ नवरस पूरइं; सो नरवर चिंतामणि तोलइ, भगतिइं श्री जयसागर बोलइं।' नयसोम-जशसोम इनके गुरु थे। इनकी गुरु परम्परा इस प्रकार बताई गई है-- तपागच्छ के ५६वें पाट पर प्रतिष्ठित आनन्दविमल सूरि की परम्परा में सोमनिर्मल>हर्षसोम (पाठक)>यशसोम के आप शिष्य थे। अपनी रचना 'बारभावना नी १२ संज्झाय अथवा भावना बेली संज्झाय (१३ ढाल सं० १७०३ शुचिमास १३ शुक्ल मंगलवार, जैसलमेर) में कवि ने गुरु का उल्लेख इस पंक्ति में किया है-- १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २९१-२९३ प्र० सं० और भाग ४ प० ४५३-४५५ न० सं० । २. डा० शितिकंठ मिश्र-हिन्दी जैन साहित्य का वृहद् इतिहास खण्ड १ ५.२३८ ३. श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कविओ भाग ५, प० ४१९ न० सं० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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