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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
दिगनिधि सतजान हरि को चतुर्थ ठान, फागुण सुदि चौथ मान निज गुण गायो है ।' इसी छन्द के ऊपर की पंक्तियों में कवि ने अपने पिता और मित्र दोनों का उल्लेख किया है ।
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चत्तर या चतुर - आप गुजराती लोकागच्छ के जसराज > रूपराज>धरमदास > भाऊ के शिष्य थे । आपने सं० १७०१, ७१ ? में चन्दनमलयागिरि चौपाई ( कथा ) की रचना की । इसमें सती मलया का गुणगान किया है । कवि ने कहा है
कठिन महावरत राख ही व्रत राखीहि सोइ चतर सुजाण, अनुकरमइ सुख पामीया जी, पाम्यो अमर विमाण ।
गुणवन्ता साधन सु । गुण दान तप सील भावना च्यारे रे धरम प्रधान, सूधइ चित्त जे पालइ जी, से पासी सुख कल्यान । सतियाना गुण गावता जी जावह पातिग दूर, भली भावना भावई जी, जाइ उपसरग दूर । रचनाकाल -- संमत सत्रासइ इकोत्तरइ जी कीधो प्रथम अभास । जे नर नारी सांभलो जी तस मन होइ उलास ।
लगता है कि काव्य रचना का यह प्रारंभिक अभ्यास था अर्थात् चत्तर की यह प्रथम रचना है । इसमें गुजराती गच्छ के जसराज से लेकर भाऊ तक की वन्दना की गई है ।
वीर वचन कहइ वीर ज हो तस पाटे धरमदास, भाऊ थिवर वर वाणीयइ जी पंडित गुणहि निवास । तस सेवक इम वीनवइ जी चतर कहई चितलाय, गुणभणता गुणता भावसूं जी तस मन वंछित थाय ।
श्री मोहनलाल देसाई ने गुरुपरम्परा इस प्रकार बताई है जसराज> रूपराज> सोभा > मोल्हाजी > पीथा > वीर जी > धर्मदास >> भाऊ के शिष्य चतुर या चतर ( चत्तर) थे । कस्तूरचन्द कासलीवाल ने १. कस्तूरचंद कासलीवाल -- राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की ग्रंथ सूची भाग पू० ४२ ।
२. वही भाग ४ पृ० ५३ और २२३-२२४ ॥
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