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प्रकाशकीय
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, जैन साहित्य के बृहद् इतिहास के निर्माण की योजना के क्रियान्वयन में विगत २५ वर्षों से निरन्तर संलग्न है। प्राचीन भारतीय भाषाओं-प्राकृत और संस्कृत साहित्य के अंग आगम, अंगबाह्य आगम, आगमिक व्याख्यायें, कर्म साहित्य, प्रकरण साहित्य, काव्य साहित्य ऐसे विभिन्न पक्षों को समेटते हुए ६ भाग प्रकाशित किये गये, साथ ही प्राचीन कन्नड़ और तमिल साहित्य की जैन कृतियों के विवरण को प्रस्तुत करने की दष्टि से तमिल, कन्नड़ और मराठी जैन साहित्य नामक सातवाँ भाग प्रकाशित किया गया । इसका आठवाँ भाग अपभ्रंश भाषा में निबद्ध जैन साहित्य से सम्बद्ध है, परन्तु योग्य लेखकों की उपलब्धि के अभाव एवं जिन्हें यह कार्य दिया गया था, उनके अत्यन्त वृद्ध अथवा स्वर्गवासी हो जाने के कारण अभी तक रुका हुआ है । इसका अगला भाग यथावत् चलता रहे इसलिये हमने यही सोचा कि इस योजना के अन्तर्गत हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास एक अलग सिरीज के रूप में प्रकाशित हो ।
यह देखकर आश्चर्य होता है कि हिन्दी भाषा का प्राचीनतम स्वरूप जो जैन साहित्य के रूप में सुरक्षित है उससे हिन्दी विद्वत् जगत् आज भी अपरिचित है। इसके लिये जैन परम्परा भी उत्तरदायी है क्योंकि उसने अपना साहित्य विद्वानों को उपलब्ध ही नहीं कराया। अपभ्रंश और आधुनिक हिन्दी भाषा के उद्भव के मध्य जो अन्तराल है उसकी पूर्ति प्राचीन मरु-गुर्जर भाषा में निबद्ध जैन साहित्य करता है। यहाँ मरु-गुर्जर से हमारा तात्पर्य राजस्थानी और गुजराती भाषा के पूर्व एवं संयुक्त रूप से है। जैन परम्परा की दृष्टि से मरु-गुर्जर वह कड़ी है जो अपभ्रंश और आधुनिक हिन्दी भाषा को जोड़ती है।
मरु-गुर्जर के जैन कवियों पर श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई और श्री अगरचन्द नाहटा ने ग्रन्थ तैयार किये थे। श्री देसाई जी के ग्रन्थ यद्यपि मरु-गुर्जर कवियों से सम्बद्ध हैं परन्तु वे गुजराती भाषा में निबद्ध हैं। श्री अगरचन्द जी नाहटा ने लगभग १०० पृष्ठों में राजस्थानी जैन कवियों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया है। देसाई जी के ग्रन्थ अपने विवरण और शोध दोनों ही दृष्टियों से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और विस्तृत होते हुए भी
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