________________
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'हिन्दी साहित्य का आदिकाल' में मरु-गुर्जर भाषा और जैन साहित्य के सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए लिखा है 'उस समय की हिन्दी और राजस्थानी में इतना रूपभेद नहीं था जितना आजकल है। यदि कहा जाय कि वे एक ही थीं तो अत्युक्ति न होगी। वे आगे लिखते हैं कि राजस्थान के साहित्य का सम्बन्ध सिर्फ हिन्दी से ही नहीं है, एक ओर उसका अविच्छेद्य सम्बन्ध हिन्दी से है तो दूसरी ओर उसका घनिष्ठ सम्बन्ध गुजराती से भी है। कभी-कभी एक ही रचना को एक विद्वान् पुरानी राजस्थानी कहता है तो दूसरा विद्वान् उसे जुनी गुजराती कह देता है। इस पुरानी राजस्थानी या जुनी गुजराती में दोनों ही प्रदेशों की भाषा के पूर्वरूप. मिलते हैं और प्राकृत-अपभ्रंश का रूप तो इनमें मिला ही रहता है। अनेक जैन कवियों ने इस प्रकार के साहित्य की रचना की है।'' ___डॉ० भोलाशंकर व्यास ने 'हिन्दी साहित्य के बृहद् इतिहास' में लिखा है कि हम जुनी गुजराती और राजस्थानी की कृतियों को जिनमें देशी भाषा का प्रयोग सर्वप्रथम हुआ हिन्दी की आद्यकृतियां मानना चाहेंगे। अन्यत्र उन्होंने स्पष्ट किया है कि 'अखिल उत्तरीभारत की तत्कालीन साहित्यिक भाषा पश्चिमी अपभ्रंश मूलतः शौरसेनी का वह परवर्ती रूप है, जो गुजरात और राजस्थान में बोली जाने वाली बोलियों से मिश्रित हो गया था। इसी को वैयाकरणों ने नागर अपभ्रंश के नाम से अभिहित किया है। उनका मत है कि जुनी गुजराती और पुरानी राजस्थानी का पूर्व रूप गौर्जर अपभ्रंश है जो शौरसेनी का एक स्थानीय स्वरूप है । इसी गौर्जर या नागर अपभ्रंश (पश्चिमी शौरसेनी) से गुजराती, राजस्थानी और पश्चिमी हिन्दी का अपने-अपने क्षेत्रों में विकास हुआ और पुरानी हिन्दी के अन्तर्गत ही पुरानी राजस्थानी, जुनी गुजराती और पुरानी महाराष्ट्री का समावेश मानना चाहिए। इसी संक्रमणकालीन भाषा का नाम मरु गुर्जर रखा गया है।
श्री कामता प्रसाद जैन ने 'हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास' में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है-'जिसे आज हम हिन्दी कहते हैं वह पहले देशभाषा अथवा भाखा के नाम से प्रसिद्ध थी।' भाषा भक्तामर कहने से प्रत्येक जैनी 'भाषा' का अर्थ हिन्दी समझ जायेगा। आदिकाल में १. आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी 'हिन्दी साहित्य का आदिकाल' पृ. ९, ११ २. डॉ० भोलाशंकर व्यास, हिन्दी सा० का बृ० इ०, भाग १पृ २३७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org