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जैन न्याय
सकता। तथा प्रमाणमें विधि और प्रतिषेध दोनों परस्पर में अलग-अलग भी प्रतिभासित नहीं होते; क्योंकि ऐसा होनेपर ऊपर केवल विधि पक्षमें और केवल निषेधपक्षमें कहे गये दोनों दोषोंका प्रसंग आता है। अतः विधि प्रतिषेधात्मक वस्तु प्रमाणका विषय है। इसलिए प्रमाणका विषय एकान्त नहीं है।
अतः प्रमाण नय नहीं है, किन्तु प्रमाणसे जानी हुई वस्तुके एकदेशमें वस्तुत्वकी विवक्षाका नाम नय है। प्रमाणसे गृहीत वस्तुमें जो एकान्तरूप व्यवहार होता है वह नयमूलक है। अतः समस्त व्यवहार नयके अधीन है। पूज्यपाद अकलंकदेवने सामान्य नयका यही लक्षण कहा है
"प्रमाणे प्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः।" । प्रमाणसे गृहीत अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि अनन्त धर्मात्मक जीवादि पदार्थोके जो विशेष धर्म हैं, उनका निर्दोष कथन करनेवाला नय है। उन्होंने अपनी अष्टशतीमें एक श्लोक उद्धृत किया है, जिसमें प्रमाणनय और दुर्नयका स्वरूप बतलाया गया है। श्लोक इस प्रकार है___ "अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः ।
नयो धर्मान्तरापेक्षी दुनयस्तन्निराकृतिः ॥" अनेक धर्मात्मक अर्थके ज्ञानको प्रमाण कहते हैं । धर्मान्तरसापेक्ष एक धर्मके ज्ञानको नय कहते हैं। और इतरधर्म निरपेक्ष एक ही धर्मके ज्ञानको दुर्नय कहते हैं । विरोधी प्रतीत होनेवाले इतरधर्मका निराकरण करनेका नाम निर. पेक्षता है। और वस्तुविचारके समय विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्मकी अपेक्षा न होनेसे उसकी उपेक्षा करनेका नाम सापेक्षता है। निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं उन्हें ही दुर्नय कहते हैं। सापेक्ष नय सम्यक होते हैं; क्योंकि वे ही कार्यकारी होते हैं। यही बात समन्तभद्र स्वामीने कही है।
“निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥" नयके भेद-नयके दो मूल भेद हैं द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक । यतः वस्तु द्रव्य पर्यायात्मक या सामान्य विशेषात्मक होती है। उसके द्रव्यांश या सामान्य रूपका ग्राही द्रव्याथिक नय है और पर्यायांश या विशेषात्मक रूपका ग्राही पर्यायाथिक नय है। जैसा कि सन्मतितर्कमें कहा है
१. तत्त्वार्थवार्तिक, १॥३३ । २. अष्टसहस्री, पृ० २६.01. ३. आप्तमीमांसा, श्लोक १०८।
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