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श्रुतके दो उपयोग हैं । किन्तु लघीयस्त्रयके स्त्रोपज्ञ भाष्य में अकलंकदेवने दोनोंके जुदे-जुदे उदाहरण दिये हैं। 'स्यात् जीव एव' यह प्रमाणवाक्यका उदाहरण है। 'स्यात् अस्त्येव जीव:' यह नयवाक्यका उदाहरण है। आचार्य प्रभाचन्द्रने दोनों प्रकारके वाक्योंका एक सा ही उदाहरण दिया है-स्यादस्ति जीवादिवस्तु-जीवादिवस्तु कथंचित सत्स्वरूप है। आचार्य कुन्दकुन्दने अपने प्रवचनसार और पंचास्तिकायमें एक-एक गाथाके द्वारा सात भंगोंके नाममात्र गिनाये हैं । किन्तु पंचास्तिकायमें 'आदेसवसेण' लिखा है जब कि प्रवचनसार में 'पज्जाएण दु केण वि' लिखा है। प्रवचनसारके पाठसे दोनों टीकाकारोंने एवकार (ही) का ग्रहण किया है । टीकाकार अमृतचन्द्र पंचास्तिकायकी गाथा चौदहकी टीकामें स्यादस्ति द्रव्यम् ( स्यात् द्रव्य है ) उदाहरण देते हैं। और प्रवचनसारको टोकामै 'स्यादस्त्येव' ( कथंचित् है ही) उदाहरण देते हैं । कुन्दकुन्दके दूसरे टीकाकार जयसेन पंचास्तिकाय गाथा चौदहको टीकामें लिखते हैं -'स्यादस्ति' यह वाक्य सकल वस्तुका ग्राहक होनेसे प्रमाणवाक्य है और 'स्थादस्त्येव द्रव्यं' यह वाक्य वस्तुके एकदेशका ग्राहक होनेसे नयवाक्य है । प्रवचनसार (२।२३) की टीकामें जयसेनने लिखा है, 'पंचास्तिकाय' में 'स्यादस्ति' आदि वाक्यसे प्रमाण सप्तभंगोका व्याख्यान किया है और यहाँ 'स्यादस्त्येव' वाक्यमें जो एवकार (हो) का ग्रहण किया है वह नयसप्तभंगोका ज्ञापन करनेके लिए है। सप्तभंगोतरंगिणो में भी दोनों प्रकारके वाक्योंका एक ही उदाहरण दिया है-'स्यादस्त्येव घट.' घट कथंचित् सत्स्वरूप
श्वेताम्बरा वार्योंमें अभयदेव सूरिने लिखा है-'स्यादस्ति'--कथंचित् है, यह प्रमाण वाक्य है। अस्त्येव-सत्स्वरूप ही है, यह दुर्नय है । 'अस्ति'-है
१. 'स्याज्जीव एव नकान्तविषयः स्याच्छन्दः । स्यादस्त्येव जीवः इत्युक्ते एकान्तविषयः
स्याच्छब्दः।'-न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ६८८ । २. 'विकलादेशस्वभावा हि नयसप्तभंगी वस्त्वंशमात्रपरूपकत्वात्। सकलादेशस्वभावात्तु
प्रमाणसप्तभंगी यथावद् वस्तुरूपप्ररूपकत्वात्। तथा हि-स्यादस्ति जीवा दिवस्तु स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया'-प्रमेयकमल०, पृ० ६८२ । ३. 'स्यादस्तीति सकलवस्तुग्राहकत्वात् प्रमाणवाक्यम्। स्यादस्त्येव द्रव्यमिति वस्त्वेक
देशग्राहकत्वात् नयवाक्यम् ।' ४. 'पूर्वं पञ्चारितकाये स्यादस्ती'त्यादिप्रमाणवाक्येन सप्तभंगी व्याख्याता, अत्र तु ____ स्यादस्त्येव यदेवकारग्रहणं तन्नयसप्तभंगीज्ञापनार्थमिति भावार्थः। ५. 'रयादस्ति' इत्यादि प्रमाणवाक्यम् , 'अस्त्येव' इत्यादि दुर्नयः, 'अस्ति' इत्यादिकः सुनयो न तु संव्यवहाराङ्गम् । 'स्थादत्येव' इत्यादिस्तु नय एव व्यवहारकारणम् ।' -सेन्मतितक टीका, पृ० ४४६ ।
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