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________________ श्रुतके दो उपयोग ३१६ एक साथ कहा जाये अथवा पहले दोनोंको एक साथ कहकर बादको क्रमसे कहा जाये तो उससे कोई अर्थमें अन्तर नहीं पड़ता। किन्तु दूसरी दृष्टिसे विचार करनेपर स्यादस्ति, स्यान्नास्ति और स्यादवक्तव्य ही मल भंग प्रमाणित होते हैं, उक्त सात भंगोंमें तीन भंग तो मल या एकसंयोगी हैं, और तीन भंग द्विसंयोगी हैं और एक भंग त्रिसंयोगी है। गणितसूत्रके अनुसार तीन मूल भंगोंके ही सब संयोगी भंग सात होते हैं । न इससे कमके होते हैं और न अधिकके । वे तीन मूल भंग है-स्यादस्ति, स्यानास्ति और स्यादवक्तव्य । द्विसंयोगी भंग हैं--स्यादस्ति नास्ति, स्यादस्ति अवक्तव्य और स्यान्नास्ति अवक्तव्य । तथा त्रिसंयोगी भंग हैंस्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य । अतः अवक्तव्य ही तीसरा मल भंग होना चाहिए। 'स्यादस्ति नास्ति तो द्विसंयोगी भंग है-प्रथम और द्वितीय भंगके मेलसे बना है। यही बात स्वामी समन्तभद्र ने अपने युक्त्यनुशासनमें कही है और वहां उन्होंने भी अवक्तव्यको तीन मूल भंगोंमें रखा है। प्रमाण सप्तभंगी और नयसप्तभंगी प्रमाणके दो भेद हैं-स्वार्थ और परार्थ । इन्द्रिय और मनकी सहायतासे होने. वाला मतिज्ञान स्वार्थप्रमाण है। और जब ज्ञाता शब्दोंके द्वारा दूसरोंपर अपने ज्ञानको प्रकट करने के लिए तत्पर होता है तब उसका वह शब्दोन्मुख ज्ञान स्वार्थश्रुत कहा जाता है और ज्ञाताके वचन परार्थश्रुत कहे जाते हैं। श्रुतप्रमाणके ही भेद नय हैं । अतः जैसे श्रुतप्रमाण ज्ञानात्मक और वचनात्मक होता है वैसे ही उसके भेद नय भी ज्ञानात्मक और वचनात्मक होते हैं। प्रमाण सकलवस्तुग्राही होता है और नय वस्तुके एकदेशका ग्राही होता है । जैसे एक ज्ञान एक समय में अनेक धर्मात्मक वस्तुको जान सकता है, उसी तरह एक शब्द एक समयमें वस्तुके अनेक धर्मोंका बोध नहीं करा सकता । इसलिए वक्ता किसी एक धर्मका अवलम्बन लेकर ही वचनव्यवहार करता है । यदि वक्ता एक धर्मके द्वारा पूर्ण वस्तुका बोध कराना चाहता है तो उसका वाक्य प्रमाणवाक्य कहा जाता है और यदि वह एक ही धर्मका बोध कराना चाहता १. 'विधिनिषेधोऽनभिलाप्यता च त्रिरेकशस्त्रिद्विश एक एव । यो विकल्पास्तव सप्त धाऽमी स्याच्छब्दनेयाः सकलार्थभेदे ॥४५॥-'विधि, निषेध और अनभिलाप्यतास्यादस्ति, स्यान्नास्ति और स्यादवक्तव्य-ये एक-एक करके तीन मूल विकल्प हैं । इनके द्विसंयोगज विकल्प तीन हैं-स्यादस्ति नास्ति, स्यादस्ति अवक्तव्य, स्यान्नास्ति प्रवक्तव्य । और त्रिसंयोगी विकल्प एक है- स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य । इस तरह हे वीर ! ये सात विकल्प, सम्पूर्ण द्रव्य-पर्यायोंमें आपके यहाँ घटित होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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