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________________ ३१४ जैन न्याय प्रसंग आता है अथवा अस्तित्वके जीवस्वभावरूप होनेसे वह पुद्गलादिमें नहीं रह सकेगा; क्योंकि पुद्गलादिमें जीवत्व नहीं रहता अतः उनमें 'सत्' यह प्रत्यय ही नहीं हो सकेगा। उक्त दोष न आयें, इसलिए यदि अस्ति शब्दके वाच्य अर्थसे जीवशब्दका वाच्य अर्थ भिन्न स्वभाववाला मानते हैं तो जीवको असद्रूपताका प्रसंग आता है; क्योंकि वह अस्तिशब्दके वाच्य अर्थसे भिन्न है जैसे गधेके सींग । ऐसी स्थितिमें जीवाधीन बन्ध, मोक्ष आदि व्यवहारका अभाव हो जायेगा। तथा अस्तित्व जैसे जीवसे भिन्न है वैसे ही अन्य पुद्गलादिसे भी भिन्न ठहरेगा। और ऐसी स्थितिमें किसी आश्रयके न होनेसे अस्तित्वका ही अभाव हो जायेगा। तथा यह बतलायें कि अस्तित्वसे भिन्न स्वभाववाले जीवका क्या स्वभाव है ? जो कुछ भी आप उसका स्वभाव बतलायेंगे वह सब असद्रूप ही होगा क्योंकि जीव असद्रूप है। समाधान-इसीलिए अस्तिशब्दके वाच्य अर्थसे जीवशब्द वाच्य अर्थको कथंचित् भिन्न स्वभाववाला और कथंचित् अभिन्न स्वभाववाला मानना चाहिए। पर्यायाथिक नयसे भवन क्रिया और जीवन क्रिया भिन्न है अतः अस्ति शब्द और जीवशब्दका अर्थ भिन्न है । और द्रव्याथिकनयसे दोनों अभिन्न हैं जीवके ग्रहणसे अस्तिका भी ग्रहण हो जाता है । अतः वस्तु कथंचित् अस्तिरूप और कथंचित् नास्तिरूप है। तृतीय भंग-स्यादवक्तव्य-जब दो गणोंके द्वारा एक अखण्ड अर्थको अभिन्न रूपसे अभेद रूपसे एक साथ कथन करनेकी इच्छा होती है तो तीसरा अवक्तव्य भंग होता है। आशय यह है कि जैसे प्रथम और द्वितीय भंगमें एक कालमें एक शब्दसे एक गुणके द्वारा क्रमसे एक समस्त वस्तुका कथन हो जाता है, उस तरह जब दो प्रतियोगी गुणोंके द्वारा अवधारण रूपसे एक साथ एक कालमें एक शब्दसे समस्त वस्तुके कहनेकी इच्छा होती है तो वस्तु अवक्तव्य हो जाती है ; क्योंकि वैसा न तो कोई शब्द ही है और न अर्थ ही है । सभी पद एक ही पदार्थको कहते हैं । 'सत्' शब्द असत्को नहीं कहता और 'असत्' शब्द सतको नहीं कहता। 'गो'शब्दके दिशा आदि अनेक अर्थ प्रसिद्ध हैं किन्तु वास्तव में गौशब्द भी अनेक हैं, सादृश्यके उपचारसे ही उन्हें एक कहा जाता है। यदि ऐसा न माना जायेगा तो समस्त वस्तु एक शब्दवाच्य हो जायेंगी, १. तत्त्वार्थ वार्तिक, पृ० २५७ । २. अष्टसहस्त्री, पृ० १३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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