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जैन न्याय
शुद्ध शब्दकी प्रतीति स्वप्नमें भी नहीं होती। अतः शब्दको भी अनेक हो मानना चाहिए।
तथा जो यह कहा है-'शब्द नित्य है अन्यथा उससे अर्थका बोध नहीं हो सकता।' यह भी ठीक नहीं है, जैसे धूम वगैरह अनित्य हैं फिर भी सदृशताकी वजहसे अनित्य धूमसे भी सर्वत्र अग्निका ज्ञान होता देखा जाता है वैसे ही शब्दके अनित्य होनेपर भी उससे अर्थका ज्ञान हो सकता है। संकेत कालमें जिस धूमको देखा था सर्वत्र उसी धूमसे अग्निका ज्ञान होता है' ऐसा तो नियम नहीं है। रसोईघरमें देखे हुए धूमके सदृश पर्वतके धूमसे भी अग्निका ज्ञान होता है। रसोईघर और पर्वतके धूम एक नहीं हैं । अतः जैसे धूम सामान्यसे अग्निका ज्ञान होता है वैसे ही शब्द सामान्य अर्थका वाचक होता है । अत: चूंकि अनित्य शब्दसे भी अर्थका ज्ञान हो सकता है इसलिए उसे नित्य मानना ठीक नहीं है । अतः शब्द अनित्य है क्योंकि वह कार्य है । तथा शब्द कार्य है; क्योंकि कारणोंके होने. पर उत्पन्न होता है और कारणोंके अभावमें उत्पन्न नहीं होता।
इस प्रकार जब वर्ण पौरुषेय (पुरुषके प्रयत्नसे उत्पन्न ) सिद्ध हो गये तो पद और वाक्य भी स्वयं ही पौरुषेय सिद्ध हो जाते हैं। क्योंकि वर्षों के ही समुदायका नाम पद और पदोंके समुदायका नाम वाक्य है।
वेदको अपौरुषेय माननेवाले मीमांसकोंका पूर्वपक्ष--मीमांसकका कहना है कि लौकिक शब्द भले ही पौरुषेय हों, किन्तु वैदिक शब्द पौरुषेय नहीं हैं; क्योंकि वेद अपौरुषेय है, वह किसी पुरुषका बनाया हुआ नहीं है । यह बात अनुमान प्रमाणसे सिद्ध है । अनुमान इस प्रकार है- वेद अपौरुषेय है; क्योंकि स्मरण योग्य होते हुए भी उसके कर्ताका स्मरण नहीं है। जैसे आकाश । यह हेतु असिद्ध नहीं है; क्योंकि वेदके कर्ताका कभी भी किसीको स्मरण नहीं होता। यदि कोई वेदका कर्ता होता तो वेदार्थका अनुष्ठान करते समय अनुष्ठाता लोग उसके प्रामाण्यको सिद्ध करनेके लिए कर्ताका स्मरण अवश्य करते; क्योंकि जो लोग जिस अर्थका अनुष्ठान करते हैं वे अवश्य ही उस शास्त्रके कर्ताका स्मरण करते हैं। किन्तु वेदविहित अग्निष्टोम आदि यज्ञोंमें, जो बहत धनव्यय तथा परिश्रमसाध्य हैं, तथा जिनका फल भी अदृष्ट है, बुद्धिमान् लोग निःसंशय प्रवत्त होते हैं । यदि उनको वेदकी सत्यताका निश्चय न होता तो वे उसमें इस तरहसे कभी भी प्रवृत्त न होते और यह बात उसके उपदेष्टाके स्मरणके अभाव में घटित नहीं होती। जैसे लोग अपने पिता आदिका स्मरण करके, कि हमारे पिताने ऐसा करनेको कहा था उनके द्वारा उपदिष्ट कर्ममें प्रवृत होते हैं, इसी
१. न्या० कु. च०, १० ७२१ । शावरभा० ११९१५ । बृहती० पृ० १७७ ।
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