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जैन-न्याय
पूर्वपक्ष २६७, ( वर्ण, पद, वाक्य अर्थके प्रतिपादन नहीं है स्फोट ही अर्थका प्रतिपादक है, वर्षाध्वनि उसोको अभिव्यक्ति करती है २६७) उत्तरपक्ष२६८ ( स्फोटकी समीक्षा ), संस्कृत शब्दोंको ही अर्थका प्रतिपादक माननेवाले मीमांसकोंका पूर्वपक्ष २७१, अपभ्रंश, प्राकृत आदिके शब्दोंको भी वाचक माननेवाले जैनोंका उत्तरपक्ष २७३, श्रुतप्रमाण २७७, ( श्रुतके अक्षरात्मक तथा अनक्षरात्मक या शब्दज और लिङ्गज भेदोंका विवेचन २७८ ) श्रुतज्ञानके विषयमें अकलंक देवका मत २८०, श्रुतज्ञानके विषयमें श्वेताम्बरमान्यता २८२ ( विशेषावश्यक भाष्यगत चर्चाका विवरण २८३, श्रुतज्ञानके अक्षररूप और अनशररूप भेदोंका विवेचन २८७, दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परामें अन्तर २९०, श्रुत. ज्ञानके श्वेताम्बर सम्मत भेद २९२, (प्रत्येक भेदके स्वरूपका विवेचन २९३ )। श्रुतके दो उपयोग
२६५-३३६ स्याद्वाद २९५ ( स्याद्वाद-श्रुतज्ञान और केवलज्ञानमें अन्तर २९५, अनेकान्त और स्याद्वाद २९६, स्याद्वाद शब्दसे श्रुतका निर्देश २९७, श्रुतके दो उपयोगस्याद्वाद और नयवाद २९७ ) स्याद्वाद २९८ ( स्याद्वादका स्वरूप २९८, स्याद्वादके बिना अनेकान्तका प्रकाशन सम्भव नहीं २९९, स्यात् और एवकारका प्रयोग ३००), सप्तभंगी ३०१ ( सप्तभंगोका विवेचन ३०२, सात ही भंग क्यों ३०४, अधिक भंगोंकी आशंकाका समाधान ३०५ ), प्रथम और द्वितीय भंगका समर्थन ३०६, प्रथम और द्वितीय भंगका विवेचन ३०९, तृतीय भंग स्यादवक्तव्यका विवेचन ३१४, चतुर्थ, पंचम और छठे भंगका विवेचन ३१७, सातवां भंग ३१८, सात भंगोंमें क्रमभेद ३१८, प्रमाण सप्तभंगी और नयसप्तभंगी ३१९, दोनोंके प्रयोगके सम्बन्धमें विविध आचार्योंका मत ३२०, एवकारके प्रयोगपर विचार ३२४, सप्तभंगीका उपयोग ३२५, अनेकान्तमें सप्तभंगी ३२६ )।
नयवाद ३२७ ( नयका लक्षण ३२७, ) प्रमाण और नयमें भेद ३२८, नयके भेद ३३०, नैगमनय ३३१, संग्रहनय ३३३, व्यवहार नय ३३४, ऋतुसूत्रनय ३३४, शब्दनय ३३५, समभिरूढनय ३३५, एवंभूतनय ३३६ ।। प्रमारणका फल
३३७-३४१ प्रमाणका साक्षात् फल तथा परम्परा फल ३३७, प्रमाणसे फल भिन्न भी होता है और अभिन्न भी ३३८, प्रमाण और फलमें सर्वथा भेद माननेवाले नैयायिकोंका पूर्वपक्ष ३३८, उत्तरपक्ष ३३९ प्रमारणाभास
३४२-३४५ प्रमाणाभासका स्वरूप ३४२, प्रमाणाभासके भेद ३४३, दृष्टान्ताभास ३४५ ।
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