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प्रास्ताविक : ३७
की कृति कहने वाली पुष्पिका वसुनन्दि को नहीं अपितु प्रसिद्ध करने की दृष्टि मे लिपिकार द्वारा पुष्पिका में ऐसा उल्लेख किया गया लगता है। यह भी सम्भव है कि मूलाचार जैसी उच्च कृति पर कृतिकार का वट्टकेर यह अधूरा सा नाम देखकर इसे कुन्दकुन्दाचार्य कृत ही लिपिकार ने समझ लिया हो और सम्भवतः इन्हीं सब आधारों पर कर्नाटक टीकाकारों द्वारा भी मूलाचार को कुन्दकुन्दाचार्य को कृति जानकर प्रसिद्ध करने की दृष्टि से वट्टकेर की अपेक्षा कुन्दकुन्द का नामोल्लेख किया गया है। इसके सम्बन्ध में पं० नाथूराम जी प्रेमी का यह कथन उद्धृत करना ही पर्याप्त है कि जब वृत्तिकार दो-दो स्थानों पर आचार्य वट्टकेर को ग्रन्थकर्ता बतलाते हैं, तब लिपिकर्ता का लिखा हुआ कुन्दकुन्दाचार्य कैसे माना जा सकता है।
कुछ विद्वानों ने कुन्दकुन्दाचार्य को षट्खण्डागम के तीन खण्डों पर परिकर्म नामक वृत्ति का रचयिता मानकर उन्हें वृत्तिकार बनाया, और वृत्तिकार से वट्टकेर प्रचलित होने तथा वट्टक-वर्तक-प्रवर्तक, इरा-गिरा, वाणी आदि रूप से वट्टकेर को वृत्तिकार कुन्दकुन्दाचार्य और वट्टकेर शब्द में आइरिय शब्द और जोड़कर वर्तक + एला + आचार्य = वर्तक-एलाचार्य अर्थात् आचार्य कुन्दकुन्द का अपरनाम ऐलाचार्य अर्थ निकाला । किन्तु यह सब शब्द चातुर्य मात्र प्रतीत होता है । क्योंकि वट्ट केर शब्द अपने आप में न तो संस्कृत भाषा का है जिसके आधार पर वृत्तिकार से वट्टकेर बना लें और न प्राकृत भाषा का शब्द है । वस्तुतः यह कन्नड़ भाषा का शब्द है जो कि किसी नगर विशेष के नाम का सूचक है । प्रेमी जी तथा डॉ० ए० एन० उपाध्ये की भी यही मान्यता है। दक्षिण भारत में अपने नाम के आगे गाँव या नगर का नाम लिखने की पद्धति भी बहुत प्राचीन है ही।
मूलाचार तथा कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों की कुछ गाथायें समान होने का जहाँ तक प्रश्न है वह केवल इस बात का भी द्योतक हो सकता है कि वट्टकेर कुन्दकुन्दाचार्य के परवर्ती हैं। वट्टकेर द्वारा परम्परा से प्राप्त कुछ गाथाओं को अपने ग्रन्थ में समावेश करने से वह दूसरे का ग्रन्थ नहीं हो जाता । वह तो केवल अपना कथन या संदर्भ पुष्ट करने के लिए होता है। यह भी हो सकता है कि वे गाथायें पूर्व-प्रचलित ही हों, जिन्हें दोनों आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में प्रसंगानुसार अपनाया हो । डॉ० हीरालाल जी ने वट्टकेर को कुन्दकुन्द से भिन्न
१. जैन साहित्य और इातहास पृष्ठ ५५३. २. जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ ५५०.
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