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जैन सिद्धान्त : ४९७
सब विकलेन्द्रियों की कुल छह लाख, देव, नारकी और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चइनमें प्रत्येक की चार-चार लाख तथा मनुष्यों की चौदह लाख योनि हैं । इस प्रकार कुल चौरासी लाख योनियाँ होती हैं । "
वेद :
जो वेदा जाय या अनुभव किया जाय उसे वेद कहते हैं । इसका दूसरा नाम 'लिंग' है । इसके तीन भेद हैं- स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद । ३ एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, नारकी और सम्मूर्च्छन– ये सब जीव नियमतः नपुंसक - वेद वाले होते हैं । भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और कल्पवासी – ये चार देव असंख्यात आयुवाले भोगभूमि में उत्पन्न तथा भोगभूमि के समीप रहने वाले मनुष्य और तिर्यञ्च - ये स्त्री और पुरुष इन दोनों वेद वाले होते हैं । इनमेंतीसरा नपुंसक वेद नहीं होता । इन पंचेन्द्रियों के अतिरिक्त शेष संज्ञी, असंज्ञीमनुष्य और तिर्यञ्च तीनों वेद वाले होते हैं । भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिष्क में देवों और देवियों के उपपाद स्थान होता है अतः स्त्री और पुरुष दोनों प्रकार के वेद इनमें होते हैं । किन्तु इन भवनत्रिक से ऐशान स्वर्ग तक केवल स्त्रीवेद तथा ऐशान से ऊपर अर्थात् सानत्कुमार से लेकर केवल पुरुषवेद ही होता है ।
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पर्याप्त :
आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन-इनकी पूर्णता होना " अर्थात् इनकी प्रवृत्तियों में परिणमन की शक्तियों के कारण पुद्गल स्कन्धों की निष्पत्ति का नाम पर्याप्ति है । इस प्रकार जीवन के लिए उपयोगी पौद्गलिक शक्ति के निर्माण की पूर्णता का होना ही पर्याप्ति है । घवला के अनुसार आहार, शरीरादि की निष्पत्ति को पर्याप्ति कहते हैं । वस्तुतः जीव एक स्थूल शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है तब भावी जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए अपने नवीन जन्म क्षेत्र में एक साथ आवश्यक पौद्गलिक सामग्री का निर्माण करता
१. मूलाचार १२।६३, ५/२९.
२. वेद्यत इति वेद : लिङ्गमित्यर्थ - - सर्वार्थसिद्धि २५२, पृ० २००.
३. वही, २६, पृ० १५९.
४. मूलाचार १२१८७-९०.
५. पर्याप्तीराहारादिकारणसम्पूर्णताः -- मूलाचार वृत्ति, १२।१.
६. कार्तिकेयानुप्रेक्षा १३४-१३५.
७. आहार शरीर ''निष्पत्तिः पर्याप्तिः - धवला १११, १, ७०, पृ० ३११.
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