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प्रथम अध्याय
प्रास्ताविक श्रमण संस्कृति भारत की प्राचीनतम संस्कृतियों में से है । यह पुरूषार्थमूलक है। इसकी चिन्तन धारा मूलतः आध्यात्मिक है । आध्यात्म के धरातल पर जीवन का चरम विकास श्रमण संस्कृति का अन्तिम लक्ष्य है । जीवन का लक्ष्य सच्चे सुख की प्राप्ति है। यह सुख स्वातंत्र्य में ही सम्भव है । कर्मबन्धन युक्त संसारी जीव इसकी पहचान नहीं कर पाता। वह इन्द्रियजन्य सुखों को वास्तविक सुख मान लेता है। श्रमण संस्कृति व्यक्ति को इस भेद-विज्ञान का दर्शन कराकर उसे निःश्रेयस् के मार्ग पर चलने के लिए प्रवृत्त करती है।
निःश्रेयस् की प्राप्ति रत्नत्रयात्मक मार्ग पर चलकर सम्भव है। सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र अपनी समग्रता में इस रत्नत्रय मार्ग का निर्माण करते हैं। प्राचीन काल से लेकर श्रमणधारा के प्रत्येक साधक ने सर्वप्रथम स्वयं के जीवन में इस रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग का अनुशरण किया और अपनी साधना की उपलब्धियों के अनन्तर इसी मोक्षमार्ग का प्रतिपादन किया। इससे जो आचार संहिता निर्मित हुई वह श्रमण परम्परा की एक समग्र आचार संहिता बनी, जिसमें गृहस्थ के जीवन से लेकर निर्वाण प्राप्ति तक की साधना और उसके उपयुक्त आचार-सम्बन्धी नियम-उपनियम आदि का विधान किया गया । __ आध्यात्मिक विकास के लिए आचार की प्रथम सीढ़ी सम्मत्तं, सम्मादिठ्ठि या सम्यग्दर्शन है । बिना इसके ज्ञान विकास का साधक नहीं हो सकता और साधना भी सम्यक् नहीं हो सकती । इसीलिए श्रावक और श्रमण दोनों के लिए सम्यग्दर्शन अनिवार्य रूप से आवश्यक है । उसके बाद ज्ञान स्वतः विकासोन्मुखी हो जाता है । किन्तु ज्ञान की समग्रता साधना के बिना सम्भव नहीं। इसलिए ‘णाणस्स सारं आयारो' तथा 'चारित्रं खलु धम्मो" कहकर आचार या चारित्र एवं तपश्चरण को विशेष रूप से आवश्यक माना गया है। सम्यग्दृष्टि-व्यक्ति आचारमार्ग में प्रवृत्त होने के लिए क्रमशः श्रावक एवं श्रमण के आचार को स्वीकार करता है अथवा सामर्थ्य के अनुसार श्रमण धर्म स्वीकार कर लेता है। श्रावक और श्रमण के आचार का स्वतन्त्र रूप से विस्तृत विवेचन करके जैन मनीषियों ने जीवन के समग्र विकास के लिए स्वतंत्र रूप से आचार संहिताओं का निर्माण कर दिया । विभिन्न युगों में देश, काल और परिस्थितियों के अनुकूल नियमोपनियमों में विकास भी हुआ है तथापि सम्यक् चारित्र का मूल लक्ष्य आध्यात्मिक विकास करते हुए मुक्ति प्राप्त करना ही रहा है । जैन वाङ्मय की विपुलता
श्रमण संस्कृति के अमर गायक और उन्नायक जैनाचार्यों ने अपने श्रेष्ठ
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