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________________ { २३ ) आराधना एवं वट्ट केरकृत मूलाचार जैसी महत्त्वपूर्ण रचनाओं पर अपने गंभीर विचार व्यक्त किये हैं। उनकी निम्नलिखित मान्यताओं से हमारे उपरोक्त कथन को सार्थकता सिद्ध होती है : [क] भगवती आराधना, मूलाचार, नियुक्ति (आवश्यक, पिंड आदि) और प्रकीर्णकों (मरण-समाधि, भक्त-परिज्ञा आदि) में जो श्रमण चर्या का एक जैसा सर्वसामान्य गाथाओं में विवेचन उपलब्ध होता है, उससे हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इन रचनाओं का स्रोत पूर्वकालीन जैन परम्परा थी जो आगे चल कर दिगम्बर और श्वेताम्बर दो परम्पराओं में विभाजित हो गई । [इण्ट्रोडक्शन, पृ० ३४] [ख] नियुक्ति, प्रकीर्णक और मूलाचार आदि रचनाओं में जो सर्वसामान्य मान्यतायें एवं गाथायें पाई जाती हैं, उनसे निश्चय ही इस बात का पता लगता है कि यह सामग्री उस काल की है जबकि दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं ने जन्म नहीं लिया था। [ग] भगवती आराधना में उल्लिखित विजहना-प्रकरण में जो जैन श्रमणों की नीहरण क्रिया का विवेचन है, वह प्राचीन प्रतीत होता है, जो आगे चलकर काल दोष से लुप्त हो गया। [ इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन के लिये देखिये इन पंक्तियों के लेखक की 'लाइफ इन ऐंशियेण्ट इंडिया ऐज डिपिक्टेड इन जैन कैनन एण्ड कॉमेण्टरीज, पृ० २८१-३] । इसके अतिरिक्त जर्मन विद्वान के ओकूद ने मूलाचार पर Eine Digambara-Dogmatik रचना प्रकाशित की है [Wiesbaden, 1975] । इसी प्रकार के० ओइतजेन्स [Oetjens ] ने भगवती आराधना पर Sivarya's Mulārādhana प्रकाशित की है [ Hamburg, 1976], मूलाचार का अध्ययन करने वाले शोध विद्यार्थियों को ये रचनायें अवश्य देखनी चाहिये । डॉक्टर शुबिंग के शिष्य डॉ० वाल्टर डेनेके [Denecke] ने १९३३ में, अपने शोध-प्रबंध 'दिगम्बर टैक्ट्स' में मलाचार आदि दिगंबरीय रचनाओं का भाषा शास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत किया है । [देखिये ए० एन० उपाध्ये, प्रवचनसार [ १९३५], इंट्रोडक्शन, पृ० १२१] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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