SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १८ ) इस सन्दर्भ में डॉ फूलचन्द प्रेमी जी मूलाचार की विषयवस्तु ( गाथाओं) की तुलना श्वेतांबरीय आवश्यक नियुक्ति, पिण्डनियुक्ति, जीवसमास और आतुर प्रत्याख्यान नामक प्रकीर्णक के साथ करने के पश्चात् जिस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं वह महत्त्वपूर्ण है। उनका कहना है : 'अर्धमागधी आगमों में श्रमणाचार के जिन नियमों और उपनियमों को निबद्ध किया गया है तथा मूलाचार में श्रमण की जो आचार संहिता निबद्ध है उसकी तात्त्विक और आध्यात्मिक विकास की प्रेरणा में कोई विशेष अन्तर प्रतीत नहीं होता। अहिंसा के जिस मूल धरातल पर श्रमणाचार का महाप्रासाद इस अर्धमागधी आगम साहित्य में निर्मित किया गया है, उसी अहिंसा के मूल धरातल पर मूलाचार में श्रमणाचार का विशाल प्रासाद निर्मित हुआ है। अर्थात् दोनों की आधारभूमि एक ही है।" (पृष्ठ २४-२५) । लेकिन उक्त तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात, १० २९ की अन्तिम पंक्तियों में जो निष्कर्ष निकाला गया, उस में इस कथन का स्पष्ट रूप से समर्थन नहीं किया गया । केवल यही कहना पर्याप्त समझा गया कि इस पर अलग से विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन और अनुसन्धान की अपेक्षा है। आगे चलकर पण्डित परमानन्दजी के कथन द्वारा स्वीकार किया गया है कि वर्तमान निर्यक्तियों का निर्माण काल विक्रम की छठी शताब्दी है और मूलाचार इन निर्यक्तियों से काफी पूर्व की रचना है, साथ ही इस बात का भी उल्लेख है कि ऐसी अवस्था में आदान-प्रदान की बात समुचित नहीं जान पड़ती (पृ० ३९ )। ___ यहां यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि यदि महावीर के निग्रन्थ .परम्परागत उपदेशों को ही मलाचार के कर्ता और नियुक्तिकार ने सर्वमान्य गाथाओं के रूप में अपनी-अपनी रचनाओं में समाविष्ट किया है तो तात्त्विक दृष्टि से इन दोनों में अमक रचना के पूर्व और अमुक रचना के उत्तरवर्ती होने का प्रश्न नहीं उठता। यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि यद्यपि मोटे तौर पर नियुक्तियों का रचना-काल विक्रम की छठी शताब्दी मान्य किया गया है, फिर भी सांकेतिक एवं संक्षिप्त शैली में निर्मित इस महत्त्वपूर्ण साहित्य की रचना प्राचीन गुरु परम्परा से आगत पूर्व साहित्य के आधार से ही की गई है, अतएव इस साहित्य की प्राचीनता में सन्देह नहीं किया जा सकता । यही बात मूलाचार और भगवती आराधना जैसे दिगंबरीय साहित्य के सम्बन्ध में कही जा सकती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy