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________________ ( ९ ) मूलाचार में जहाँ श्रमणों के आचार से सम्बन्धित सभी विषयों का प्रामाणिक प्रतिपादन है वहीं जैन सिद्धान्त के विविध विषयों का भी अच्छा विवेचन किया गया है | अतः प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्तिम एवं षष्ठ अध्याय में मूलाचार में प्रतिपाद्य सभी सिद्धान्तों का भी सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । मैंने मूलाचार के परिप्रेक्ष्य में दिगम्बर एवं श्वेताम्बर इन दोनों जैन तथा विभिन्न परम्पराओं के आचार से सम्बन्धित प्रायः सभी प्राचीन भाषाओं के साहित्य का अपने अनुसन्धान कार्य में प्रयोग करते हुए अध्ययन करने का भरपूर प्रयास किया है । इसीलिए मूलाचार पर शोध हेतु सन् १६७२ हुए शोध पंजीयन के समय से लेकर इसके प्रकाशन की अवधि तक लगभग इन १५-१६ वर्षों में लगातार मेरे अध्ययन-अध्यापन, मननचिन्तन, विचार-विमर्श, तुलनात्मक विवेचन तथा लेखन आदि के सभी प्रयत्न इसी ग्रन्थ को अच्छे से अच्छा बनाने में होते रहे हैं । यही कारण है कि सन् १९७६ के टाइप किये हुए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे पी-एच. डी. हेतु स्वीकृत मूल शोध प्रबन्ध और सन् १९८८ में प्रकाशित हुए प्रस्तुत ग्रन्थ को विविध दृष्टियों से काफी विशेषताओं से युक्त बनाने का प्रयास किया है ! इस अध्ययन के दौरान मैंने यह अनुभव किया कि शौरसेनी एवं अर्धमागधी प्राकृत के आचार विषयक वाङ् मय का तुलनात्मक अध्ययन बहुत आवश्यक है । अतः ऐसे अध्ययन के लिए तद्विषयक सभी परम्पराओं एवं भाषाओं के साहित्य का गहराई से अध्ययन होना चाहिए तभी किसी भी ऐसे अध्ययन में पूर्णता आ सकती है । मूलाचार के दीर्घकालीन अध्ययन एवं मनन के समय मैंने यह भी निरन्तर महसूस किया कि श्रमणाचार के विविध पक्षों का प्रतिपादन करने वाले मूलाचार का प्रत्येक अधिकार परस्पर सम्बद्ध एवं पूरक होते हुए भी वस्तुत: स्वतन्त्र ग्रन्थ के समान है चूँकि इनमें इतनी सामग्री है कि इसके प्रत्येक अधिकार पर स्वतन्त्र शोध-प्रबन्ध भी लिखे जा सकते हैं । यद्यपि मेरे देखने में नहीं आया किन्तु ऐसा ज्ञात हुआ है कि इसके मात्र पिण्डशुद्धि अधिकार पर ही एक बृहद् शोध प्रबन्ध जर्मन में लिखा गया है। डॉ० जगदीशचंद्र जी जैन ने अपनी प्रस्तावना में इस तरह के कुछ अध्ययनों का उल्लेख भी किया है । फिर भी भाषावैज्ञानिक, आचारशास्त्रीय, आध्यात्मिक, नैतिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002088
Book TitleMulachar ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1987
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size23 MB
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