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५६ : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन सब जीवों को जानकर उठने-बैठने, कायोत्सर्ग आदि सभी क्रियाओं में हिंसा आदि का त्याग करना अहिंसा महाव्रत है।' ____ अहिंसा हिंसा का निषेधात्मक रूप है । "हिंसा' शब्द हिंस धातु से बना है, जिसका अर्थ है-वध करना, घायल करना, आताप पहुँचाना या दुःख देना । कषाय की भावना के वशीभूत होकर मन, वचन, और कायरूप योग से किसी भी प्राणी के प्राणों का हनन करना, कष्ट पहुँचाना हिंसा है । हिंसा के दो रूप हैं-द्रव्यहिंसा और भावहिंसा । एक जीव की किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति से दूसरे प्राणी को कष्ट पहुँचा तब उस प्रवृत्ति का जो स्थूल फल सामने आता है वह द्रव्याहिंसा है तथा उस प्रवृत्ति को करनेवाले व्यक्ति की आत्मा में जो परिणाम थे, जिनकी प्रेरणा पाकर वह वैसी प्रवृत्ति करने को प्रवृत्त हुआ या न कर पाने पर मात्र वैसे परिणाम मन में आये-ऐसे ही परिणामों का नाम भावहिंसा है। इस तरह बहिरंग में प्राणियों के इन्द्रिय, बल, आयु, श्वासोच्छवास रूपी द्रव्य प्राणों की हिंसा से तथा अन्तरंग में राग-द्वेषादि रूप भाव-हिंसा से सर्वथा विरत रहना अहिंसा महाव्रत है ।
मूलाचारकार ने पृथ्वी आदि षट् कायिक हिंसा के त्याग की बात इसलिए कही, क्योंकि इनमें सम्पूर्ण जीवों का समावेश हो जाता है । अहिंसा के चित्त का निर्माण इन्हीं की हिंसा के त्याग द्वारा सम्भव है । ऐसा कभी नहीं हो सकता कि पृथ्वी आदि में से किसी एक निकाय की हिंसा का विधान हो तथा अन्य का निषेध । क्योंकि जो किसी एक की हिंसा करता है वह अन्य किसी भी निकाय की हिंसा कर सकता है, और उसके मन में अन्य निकाय के जीवों के प्रति मैत्रीभाव बन नहीं सकता है। आचारांग में कहा भी है-इस जगत में जो मनुष्य प्रयोजनवश या निष्प्रयोजन जीव-वध करते हैं वे इन छह जीव-निकायों में से किसी भी जीव का वध कर देते हैं। इसलिए षट्कायिक जीवों की मन, वचन, काय तथा कृत कारित और अनुमोदन से हिंसा के सर्वथा त्याग को अहिंसा महाव्रत कहा गया है । मूलाचारकार ने पाँच पापों से डरने वाले साधु को मन, वचन, और काय से सर्वत्र सर्वकाल में एकेन्द्रियादि किसी भी जीव का घात न करने की बात कही। भगवती आराधना में कहा है-जैसे तुझे दुःख प्रिय १. कायेंदियगुणमग्गणकुलाउजोणीसु सव्वजीवाणं ।
णाऊण य ठाणादिसु हिंसादिविवज्जणमहिंसा ॥ मूलाचार १-५. २. आवंती केआवंती लोयंसि विप्परामुसंति, अट्ठाए अणट्ठाए वा, एएसु
चेव विप्परामुसंति -आचारांग ५।११. ३. मूलाचार ५।९२..
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