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________________ भूमिका भारतीय संस्कृति की श्रमण परम्परा संन्यास मार्ग की समर्थक है। किन्तु संन्यास के क्षेत्र में प्रवेश करने का पुरुषों के समान स्त्रियों का भी अधिकार है या नहीं यह प्रश्न विवादास्पद हो रहा है । वैदिक परम्परा में कलिकाल में स्त्री के लिए संन्यास को वयं कहकर उसे प्रवजित होने से रोका गया। यद्यपि भारतीय संस्कृति के प्राचीनतम ग्रन्थों वेद, उपनिषद् आदि में संन्यासिनियों के यत्र-तत्र कुछ सन्दर्भ अवश्य उपलब्ध हैं फिर भी यह एक स्पष्ट तथ्य है कि वैदिक धारा में नारी जाति को संन्यास-मार्ग में प्रविष्ट होने से रोका ही गया । श्रमण परम्परा में भगवान बुद्ध जैसा महान् व्यक्तित्व भी नारी जाति को संघ में ससंकोच ही प्रवेश दे पाया। यद्यपि जैन आगमिक स्रोतों से हमें यह पता लगता है कि श्रमण धारा की निर्ग्रन्थ परम्परा में भगवान महावीर और उनके पूर्व भगवान् पार्श्व ने नारी-जाति को उन्मुक्त भाव से संघ में प्रवेश दिया । ऐतिहासिक आधारों पर यह एक सुनिश्चित सत्य है कि पार्श्व के समय में एक सुव्यवस्थित भिक्षुणी संघ का निर्माण हो चुका था। यद्यपि परम्परागत दृष्टि से जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में पूर्ववर्ती तीर्थंकरों एवं बुद्धों के संघ में भी भिक्षुणी वर्ग की उपस्थिति की परिकल्पना की गई है। वस्तुतः नारी-जाति को प्रव्रजित होने से रोकने के दो कारण थे । प्रथम तो यह कि पुरुष सदेव से स्त्री को एक भोग्या के रूप में देखता रहा और इसी कारण उसे स्वतन्त्र जीवन जीने के लिए सहमत नहीं हो सका। इसका दूसरा कारण यह भी था कि नारी-जाति के संघ-प्रवेश से श्रमण वर्ग के चारित्रिक स्खलन की सम्भावनायें अधिक बढ़ जाती थीं। बुद्ध का भिक्षुणी संघ के निर्माण में जो संकोच था उसका मूल कारण यही था। किन्तु दूसरी ओर ऐसी अनेक विवशतायें भी थीं जिनके कारण इन धर्मशास्ताओं को भिक्षुणी संघ का निर्माण करना ही पड़ा । पति के प्रवजित होने पर अथवा पति एवं पुत्र की मृत्यु हो जाने पर नारी को सम्मानपूर्ण जीवन जीने के लिए भिक्षुणी बनना एकमात्र विकल्प था। यही कारण था कि भिक्षु संघ की अपेक्षा भिक्षुणी संघ को सदस्य संख्या में सदेव अभिवृद्धि होती रही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002086
Book TitleJain aur Bauddh Bhikshuni Sangh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArun Pratap Sinh
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1986
Total Pages282
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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