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२०२ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ
हाथीगुफा अभिलेख से ही कलिंग (उड़ीसा) में चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व में जैन धर्म के वर्तमान होने की सूचना मिलती है । यह शिलालेख " नमो अरहंतानं नमो सवसिधानं" से प्रारम्भ होता है । अभिलेख को उत्कीर्ण कराने वाले कलिंग नरेश खारवेल के ३०० वर्ष पूर्व नन्दराजा कलिंग से जिन प्रतिमा ले गया था । इसमें किसी जैन भिक्षुणी का नामो'ल्लेख नहीं हैं, परन्तु इस क्षेत्र में जैन धर्म के प्रसार की पुष्टि होती है ।
उज्जयिनी भी जैन धर्म का एक प्रसिद्ध केन्द्र था । बृहत्कल्पभाष्यकार के अनुसार अशोक का पौत्र सम्प्रति जैनधर्मावलम्बी था । सम्प्रति ने मालवा और उसके निकटवर्ती क्षेत्रों पर राज्य किया था । यह - बताया जाता है कि अपने पितामह की नीति का अनुसरण करते हुए उसने अन्द (आन्ध्र ), दमिल ( द्रविड़ ) तथा महरट्ट (महाराष्ट्र) आदि राज्यों में धार्मिक प्रचार किया । कालकाचार्य तथा उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल को कथा' से भी उज्जयिनी में जैन धर्म के प्रचार की पुष्टि होती है । यह भिक्षुणियों का भी केन्द्र था, क्योंकि उज्जयिनी के ही राजा गर्दभिल्ल ने कालकाचार्य की भिक्षुणी बहन सरस्वती का अपहरण किया था ।
द्वितीय शताब्दी ईस्वी के जूनागढ़ ( काठियावाड़) के एक अभिलेख से वहाँ जैन धर्म के प्रचार की पुष्टि होती है । इस अभिलेख में कुछ व्यक्तियों को केवलज्ञान से युक्त (केवलज्ञानप्राप्तानाम् ) बताया गया है ।
दक्षिण भारत में भी ईसा पूर्व की शताब्दियों में जैन धर्म के प्रचार की पुष्टि होती है । जैन अनुश्रुति के अनुसार मगध का सम्राट चन्द्रगुप्त जैन मुनि भद्रबाहु के साथ दक्षिण भारत गया था । श्रवणवेलगोल के पास स्थित चन्द्रगिरी पर्वत को इसी सम्राट से सम्बद्ध किया जाता है । उत्तर भारत के भयंकर अकाल से बचने के लिए चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व में दक्षिण भारत की ओर प्रस्थान करना इसका संकेत करता है कि उसके भी पूर्व दक्षिण भारत में जैन धर्म का कुछ न कुछ प्रचार अवश्य हो गया था । इसकी पुष्टि बौद्ध ग्रन्थों से भी होती है । सिंहली ग्रन्थ महावस के अनुसार पाण्डुगाभय राजा ने अनुराधपुर नामक राजधानी में
१. बृहत्कल्प भाष्य, भाग तृतीय, ३२७५-८९.
२. निशीथ विशेष चूर्ण, २७६०.
3. Epigraphia Indica, Vol. 16, P. 241.
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