________________
सप्तम अध्याय
भिक्षु-भिक्षुणी सम्बन्ध एवं संघ में
भिक्षुणी की स्थिति
जैन एवं बौद्ध दोनों संघ-भिक्षु, भिक्षुणी, उपासक और उपासिकाऐसे चार भागों में विभाजि त थे, परन्तु संघ के मूल स्तम्भ भिक्षु-भिक्षुणी ही थे । प्राचीन साहित्य में जितने भी नियमों एवं उप-नियमों का निर्माण हुआ, वे प्रमुखतया इन्हीं से सम्बन्धित थे। संघ में एक साथ रहते हुए भिक्ष और भिक्षणियों में पारस्परिक सम्बन्ध एवं परिचय का होना स्वाभाविक था। इन सम्बन्धों एवं मेलजोल प्रसंगों के परिणामस्वरूप चारित्रिक पतन की सम्भावना भी हो सकती थी। अतः संघ में उनके पारस्परिक व्यवहार को जहाँ तक सम्भव हो सका, कम करने की कोशिश की गई इस सम्बन्ध में दोनों धर्मों में प्रारम्भ से ही विस्तृत नियमों की रचना की गई थी। जैन धर्म में भिक्षुणी की स्थिति
जाति, धर्म, रंग, रूप लिंग आदि में समानता का दावा करने के बाद भी यह स्पष्ट है कि जैन संघ में भिक्षुणियों की स्थिति निम्न थी । जैन धर्म के दिगम्बर सम्प्रदाय ने तो स्त्री को तब तक मुक्ति की अधिकारिणी ही नहीं माना, जब तक कि वह पूरुष के रूप में पूनः जन्म न ले। इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर सम्प्रदाय की विचारधारा उदार रही। इन्होंने नारी को न केवल मोक्ष का अधिकारी बताया, अपितु यह भी स्वीकार किया कि नारी सर्वोच्च तीर्थंकर पद को प्राप्त कर सकती है। श्वेताम्बर जैन परम्परा के, आगम ग्रन्थों में प्रयुक्त 'भिक्खु भिक्खुनी वा" तथा "निग्गन्थनिग्गन्थी वा" शब्द से भी यह द्योतित होता है कि अधिकांश नियम दोनों के लिए समान थे।
परन्तु, श्वेताम्बर सम्प्रदाय की इस उदारवादी दृष्टि के बावजूद भी उनके आगमों में स्त्री-दोषों को बढ़ा-चढ़ा कर ही चित्रित किया गया है। उत्तराध्ययन में स्त्रियों को पंक के समान बताते हुये कहा गया है कि जिस प्रकार पंक प्राणी को अपने में फंसा लेता है उसी प्रकार स्त्रियाँ पुरुष को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org