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संगठनात्मक व्यवस्था एवं दण्ड प्रक्रिया : १७९
दुहराया जाता था । अतः बौद्ध भिक्षुणी संघ में १५ दिन बाद ही संघ को अपराधों की सूचना मिलती थी । इसी प्रकार प्रवारणा ( वर्ष में एक बार) के समय दृष्ट, श्रुत तथा परिशंकित अपराधों की जाँच होती थी । (घ) जैन संघ में प्रायश्चित्त के सम्बन्ध में भी “भिक्खु वा भिक्खुणी वा” तथा “निग्गन्थ वा निग्गन्थी वा" कहकर भिक्षु भिक्षुणियों के अधिकाश नियमों में समानता स्थापित की गई है । एक अपराध करने पर भिक्षु को जो दण्ड दिया जाता था वही दण्ड भिक्षुणी के लिए भी निर्धारित था । परिहार के दण्ड से भिक्षुणी को मुक्त करने के अतिरिक्त भिक्षुभिक्षुणियों में अन्य कोई मूलभूत भेद नहीं किया गया है । बौद्ध संघ में भी परिहार की तरह यद्यपि परिवास के दण्ड से भिक्षुणियों को मुक्त किया गया है, परन्तु बौद्ध संघ में भिक्खु, पातिमोक्ख तथा भिक्खुनी पातिमोक्ख, जिसमें नियमों का उल्लेख है - का अलग-अलग विभाजन है । भिक्खुनी पातिमोक्ख में नियमों की संख्या भिक्खु पातिमोक्ख के नियमों से ज्यादा है ।
(ङ) जैन दण्ड - व्यवस्था की एक प्रमुख विशिष्टता अपराध की गुरुता में भेद करना था । एक ही अपराध करने पर उच्च पदाधिकारियों को कठोर दण्ड तथा निम्न पदाधिकारियों को नरम दण्ड की व्यवस्था थी । संघ के उच्च पदाधिकारी चूँकि नियमों के ज्ञाता होते थे, अतः उनसे यह
आशा की जाती थी कि वे नियमों का सूक्ष्मता से पालन करेंगे। संघ को सुव्यवस्थित आधार प्रदान करने के लिए उनसे ऐसा आदर्श उपस्थित करने को कहा गया था, जिससे अन्य लोग उनका अनुसरण कर सकें । बौद्ध संघ में यह बात नहीं थी । अपराध करने पर संघ के सभी सदस्यों के लिए समान दण्ड की व्यवस्था थी । जैन एवं बौद्ध संघों की दण्ड प्रक्रिया का यह एक मूल- भूत अन्तर था ।
(च) इसके अतिरिक्त जैन संघ में अपराधों की गुरुता परिस्थितियों के अनुसार कम-ज्यादा भी होती थी । यदि भिक्षु या भिक्षुणी स्वेच्छा से अपराध करते थे, तो उन्हें गम्भीर दण्ड दिया जाता था तथा यदि वही अपराध अनजान में अथवा विवशता से किया गया हो, तो नरम दण्ड की व्यवस्था थी । अपराधी अपने पदाधिकारी से उन परिस्थितियों को बताता था, जिनमें वह अपराध करने के लिए प्रेरित होता था । बौद्ध संघ में यह विशेषता नहीं पाई जाती है ।
(छ) जैन संघ में प्रायश्चित्त के १० प्रकार हैं, जिनमें आलोचना, प्रतिक्रमण तथा कायोत्सर्ग करना जैन भिक्षुणियों का प्रतिदिन का कार्य था ।
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