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संगठनात्मक व्यवस्था एवं दण्ड-प्रक्रिया : १७७
स्वाध्याय सम्बन्धी अपराध
जैन भिक्षुणी-(क) जो भिक्षुणी अस्वाध्याय काल में स्वाध्याय करे तथा स्वाध्याय काल में अस्वाध्याय करे, तो उसे चातुर्मासिक उद्घातिक प्रायश्चित्त'।
(ख) भावहीन होकर सूत्र का उच्चारण करे या शब्दों को छोड़कर पढ़े, तो मासलघु प्रायश्चित्त ।
बौद्ध भिक्षुणी--(क) जो भिक्षुणी झूठी विद्याओं को सीखे या पढ़ाये, तो पाचित्तिय प्रायश्चित्त ।
(ख) धर्म के सार को संक्षिप्त रूप से कहने का विधान था, जो भिक्षणी इस नियम का अतिक्रमण करे, तो पाचित्तिय प्रायश्चित्त ।
(ग) जो भिक्षुणी उपदेश सुनने या उपोसथ में न जाये, तो पाचित्तिय प्रायश्चित्त ।
तुलना-उपयुक्त अध्ययन से दोनों संघों में दण्ड-प्रक्रिया सम्बन्धी नियमों में काफी समानता दिखाई पड़ती है। दोनों ही भिक्षणी-संघों में मैथुन,चोरी तथा हिंसा को गम्भीरतम अपराध समझा जाता था तथा इसके लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था थी। संघ की व्यवस्था को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए नियमों का कठोरता से पालन किया जाता था। संघ के प्रति किया गया थोड़ा भी अनादर का भाव अथवा उसके नियमों की अवहेलना दोनों संघों की भिक्षणियों को कठोर दण्ड की भागी बनाती थी । संघ की मर्यादा को अक्षुण्ण बनाये रखने का हर सम्भव प्रयत्न किया गया था। जिस भिक्षु या भिक्षुणी को किसी कारणवश संघ से निकाल दिया जाता थाउसका अनुसरण करने वाला भी उसी के समान अपराधी समझा जाता था। बौद्ध संघ में तो ऐसे भिक्षुणी के लिए पाराजिक दण्ड की व्यवस्था थी अर्थात् संघ में अब वह कभी भी नहीं ली जा सकती थी। अयोग्य पात्र को संघ में प्रवेश कराना भी गम्भीर अपराध था। संघ-प्रवेश के समय दोनों संघों में अत्यन्त सतर्कता बरती जाती थी क्योंकि ऐसे व्यक्ति संघ
१. निशीथ सूत्र, १९।१०-२०. २. बृहत्कल्पभाष्य, भाग प्रथम, २८८-२९९. ३. पातिमोक्ख, भिवखुनी पाचित्तिय, ४९-५०. ४. वही, १०३. ५. वही, ५८-५९.
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