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१४४ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ होता जाता था। ऐसे नियमों का प्रतिपादन सम्भवतः इसलिए किया गया प्रतीत होता है ताकि उच्चपदस्थ भिक्षुणियाँ अन्य भिक्षुणियों के लिए एक आदर्श उपस्थित करें।
इसी प्रकार एक ही नियम का अतिक्रमण बार-बार करने पर प्रायश्चित्त भी क्रमशः गुरुतर होता जाता था। उदाहरणस्वरूप-जैन भिक्षु या भिक्षुणी को दिन में एक बार भिक्षा-गवेषणा करने का विधान था। यदि भिक्षु या भिक्षुणी एक से अधिक बार भिक्षा-गवेषणा के लिए जायें तो उसके लिए क्रमशः गुरुतर दण्ड की व्यवस्था थी।'
दिन में दो बार जाने पर --मासलघु दिन में तीन बार जाने पर -मासगुरु दिन में चार बार जाने पर -चतुर्लघु दिन में पाँच बार जाने पर -चतुर्गुरु दिन में छः बार जाने पर -षड्लघु दिन में सात बार जाने पर -षड्गुरु दिन में आठ लार जाने पर -छेद दिन में नौ बार जाने पर -मूल दिन में दस बार जाने पर -अनवस्थाप्य
दिन में ग्यारह बार जाने पर -पारांजिक बौद्ध संघ में दण्ड-प्रक्रिया
बौद्ध संघ के नियमों के पालन में शिथिलता या अवहेलना करने पर भिक्षु-भिक्षुणियाँ दण्ड के भागी होते थे । यद्यपि बुद्ध ने आनन्द से छोटी
निद्रायमाणाया गुरुविंशतिरात्रिन्दिवेषु, प्रचलायमानाया लघुपंचविंशतिरात्रिन्दिवेषु, अशनाद्याहारमाहरन्त्या गुरुपंचविंशतिरात्रिन्दिवेषु, उच्चारप्रश्रवणे आचरन्त्या लघुमासे, स्वाध्यायं विदधानाया मासगुरुके, धर्मजागरिकया जाग्रत्याश्चतुर्लघुके, कायोत्सर्ग कुर्वत्याश्चतुर्गुरुके तिष्ठति । एवं क्ष ल्लिकायाः प्रायश्चित्तमुक्तम् । शेषाणां तु स्थविरादीनामेकैकं स्थानमुपरि वळते अधस्ताच्चैकैकं स्थानं हीयते । तद्यथा-स्थविराया गुरुपंचकादारब्धं षड्लघुकं यावद्, भिक्षु ण्या लघुदशकादारब्धं षड्गुरुकान्तम्, अभिषेकाया गुरुदशकादारब्धं छेदपर्यन्तम्, प्रवत्तिन्या लघुपंचदशकादारब्धं मूलान्तमवसातव्यम् ॥
-बृहत्कल्पभाष्य, भाग तृतीय, २४०९-टोका। १. वही, भाग तृतीय, १६९७-१७००-टीका ।
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