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-१४२ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ
प्रायश्चित्त के मुख्य १० भेद हैं'
(१) आलोचना - अपने लिए स्वीकृत व्रतों का यथाविधि पालन करते हुये अनजान में भी हुए दोषों को गुरु के समक्ष निवेदित करना |
(२) प्रतिक्रमण - अपने कर्त्तव्य का पालन करते हुये जो भूलें होती हैं उनके लिए "मिच्छा में दुक्कडं होज्जा" अर्थात् मेरे दुष्कृत मिथ्या होंयह कहकर अपने दोष से निवृत्त होना । २
( ३ ) तदुभय-दोषों के निवारणार्थ आलोचना तथा प्रतिक्रमण दोनों
करना ।
(४) विवेक - ग्रहण किये हुये भोजन-पान को सदोष ज्ञात होने पर त्याग कर देना ।
(५) भ्युत्सर्ग- - गमनागमन करते समय, निद्रावस्था में सावद्य स्वप्न आने पर तथा नदी को नौका आदि से पार करने पर कायोत्सर्ग करना अर्थात् खड़े होकर ध्यान करना ।
(६) तप- -प्रमाद के कारण किये गये अनाचार के सेवन पर गुरु द्वारा दिये गये तप प्रायश्चित्त को स्वीकार करना । इसका अधिकतम समय ६ मास का होता है ।
(७) छेद–अनेक व्रतों की विराधना करने वाले और बिना करण अपवाद मार्ग का सेवन करने वाले भिक्षु या भिक्षुणी की दीक्षाकाल कम करना अर्थात् वरोयता कम करना छेद प्रायश्चित्त है ।
(८) मूल - जान बूझकर किसी पंचेन्द्रिय प्राणी का घात करने पर तथा मृषावाद का सेवन करने पर पूर्व की दीक्षा का समूल छेदन करना मूल प्रायश्चित्त है । ऐसे भिक्षु या भिक्षुणी को पुनः नवीन दीक्षा लेनी पड़ती है ।
(९) अनवस्थाप्य - ऐसे घोर पाप करने पर जिसकी शुद्धि मूल प्रायश्चित्त से भी सम्भव न हो, उसे गृहस्थ वेश धारण कराकर पुनः नवीन दीक्षा देना अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त है ।
१. " तं दसविहमालोयण पडिकमणोभयविवेगवोसग्गा तवछेदमूलअणवट्ट्या य पारंचियं चेव"
बन
२. द्रष्टव्य - इसी ग्रन्थ का चतुर्थ अध्याय ।
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- जीतकल्पसूत्र, ४, भाष्य ७१८-३०.
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