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संगठनात्मक व्यवस्था एवं दण्ड-प्रक्रिया : १३५ कुशल भिक्षु ही गणधर बन सकता था । वह गम्भीर, दुर्धर्ष (स्थिर चित्तवाला), मितवादी, चिरप्रवजित और गृहीतार्थ (आचार-प्रायश्चित आदि नियमों का ज्ञाता) होता था।'
उपयुक्त गुणों से रहित भिक्षु के गणधर बनने पर गण का विनाश माना गया था। टीकाकार के अनुसार ऐसा गणधर छेद, मूल, परिहार तथा पारांजिक प्रायश्चित्त का पात्र होता है ।
दोनों सम्प्रदायों के भिक्षुणी-संघ की संगठनात्मक व्यस्था का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भिक्षुणी-संघ का एक सुव्यवस्थित संगठन था। उनके विभिन्न पदों के लिए आवश्यक कर्तव्य तथा अधिकार निश्चित कर दिये गये थे। इसके विपरीत दिगम्बर सम्प्रदाय में भिक्षुणी-संघ की संगठनात्मक व्यवस्था का अविकसित रूप ही परिलक्षित होता है। बौद्ध भिक्षुणी-संघ की संगठनात्मक व्यवस्था ___ बौद्ध भिक्षुणी-संघ की संगठनात्मक व्यवस्था सम्बन्धी पदों के निर्माण में एक क्रमिक विकास परिलक्षित होता है। भिक्षुणी-संघ की स्थापना के समय अष्टगुरुधर्मों को स्वीकार कर लेने पर नारी को प्रव्रज्या तथा उपसम्पदा दोनों प्राप्त हो जाती थो तथा वह भिक्षुणी कहलाने लगती थी। महाप्रजापति गौतमी तथा उसके साथ की स्त्रियों को इसी प्रकार प्रव्रज्या तथा उपसम्पदा प्राप्त हुई थी। परन्तु जब भिक्षुणी बनने हेतु स्त्रियों की संख्या में वृद्धि होने लगी, तब प्रव्रज्या तथा उपसम्पदा में भेद कर दिया गया तथा सामणेरो (श्रामणेरी) तथा सिक्खमाना (शिक्षमाणा) नामक नये पदों का सृजन हुआ। १. "पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरु परिसुद्धो संगहणुग्गहकुसलो सददं सारक्खणाजुत्तो. गंभीरो दुरिसो मिदवादी अप्पकोदुहल्लो य चिरपब्वइदो गिहिदत्यो अज्जाणं गणधरो होदि
-मूलाचार, ४/१८३-८४. २. "पूर्वोक्तगुणव्यतिरिक्तो यद्यार्याणां गणधरत्वं करोति तदानीं तस्य चत्वारः
कालाविनाशमुपयान्ति, अथवा चत्वारि प्रायश्चित्तानि लभते गच्छादेविराधना च भवेदिति,
-वही, ४/१८५-टीका । ३. चुल्लवग्ग, पृ० ३७८.
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