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१२६ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ विवेचना की तथा ऐसो प्रवृत्ति को प्रारम्भ में ही रोक देने का प्रयत्न किया था । उदाहरणस्वरूप-दोनों संघों में नपुंसकों को दीक्षा देना निषिद्ध था। संघ में प्रवेश लेते समय ही इसकी कड़ी परीक्षा कर ली जाती थी। यहाँ यह अवलोकनीय है कि बौद्धाचार्यों की अपेक्षा जैन आचार्यों ने इस समस्या को अत्यन्त गम्भीरतापूर्वक लिया था। नपुसकों के भेदों-उपभेदों तथा उनके व्यवहार से सम्बन्धित जितनी विस्तृत समीक्षा जैन ग्रन्थों में मिलती है, उतनी बौद्ध ग्रन्थों में अप्राप्य है। दोनों संघों में भिक्षुणियों को कहीं अकेले आने-जाने का निषेध था । इसी प्रकार दोनों संघों में भिक्षुभिक्षुणियों के पारस्परिक व्यवहार के अनेक नियम थे, जिनका अतिक्रमण करने पर उन्हें दण्ड का भागी बनना पड़ता था। भिक्षु-भिक्षुणी के मध्य गहरे सम्बन्ध का विकसित होना दोनों संघों में निन्दनीय माना जाता था।
इसके साथ ही दोनों संघों में ऐसो भिक्षुणियों के प्रति सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाता था, जो परिस्थितियों के कारण (जिनमें उनका कोई दोष न हो) दीक्षा के पश्चात् गर्भिणी हो जाती थीं। जैन संघ के नियमानुसार ऐसी भिक्षुणियों को श्रद्धालु श्रावक के यहाँ रखने का विधान था तथा बौद्ध संघ के अनुसार ऐसो भिक्षुणियों के लिए एक सहायक भिक्षुणी देने की व्यवस्था थी ।
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