________________
१२४ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ
भिक्षुणियाँ अपनी इन्द्रियों को इतना वश में रखती थीं कि प्रलोभन देने पर भी उनमें काम-भावना उत्पन्न नहीं होती थी। इस सम्बन्ध में राजगृह की भिक्षुणो शुभा का उदाहरण द्रष्टव्य है--कलुषित विचारों को मन में लिए हुये एक कामासक्त पुरुष को, जो उसकी आँखों के प्रति आकर्षित था, शुभा ने अपनी आँखें निकाल कर दे दी थीं। शुभा अत्यन्त दृढ़ विश्वास के साथ कहती है कि कोई भी वस्तु उसके अन्दर राग का उद्रेक नहीं कर सकती । हाथ से फेंकी हई चिन्गारी के समान तथा उड़ेले हुए विष के प्याले के समान उसका राग-भाव समाप्त हो गया है।' शिशपचाला अपने को सदाचार-सम्पन्न तथा संयतेन्द्रिय भिक्षुणी कहती है। ___ कुछ भिक्षुणियाँ वासना की जड़ का समूलोच्छेदन कर निर्वाण की अनुभूत अर्थात् परम शान्ति का वर्णन करतो हैं (सब्बत्थ विहता नन्दि तमोवखन्धो पदालिता)। संयुत्त निकाय में उल्लेख है कि नन्दा तथा अशोका नामक भिक्षुणियों ने निर्वाण पद को प्राप्त कर लिया था। इसी ग्रन्थ में भिक्षणियाँ स्थविर आनन्द को यह बताती हैं कि श्रावस्ती के भिक्षणी-विहार में कुछ भिक्षणियाँ चार स्मृति-प्रस्थानों (काया, वेदना, चित्त, धर्म) में सुप्रतिष्ठित चित्त वाली होकर अधिक से अधिक विशेषता को प्राप्त हो रही हैं। ___ इसी प्रकार के अन्य उदाहरण संयुत्तनिकाय" तथा दीघनिकाय में प्राप्त होते हैं। बुद्ध ने मार से कहा था कि जब तक भिक्षु-भिक्षुणियाँ विनयवान्, विशारद, बहुश्रुत तथा धर्मानुसार आचरण वरने वाले नहीं हो जाते, तब तक वे परिनिर्वाण को प्राप्त नहीं होंगे। इसके प्रत्युत्तर में मार १. 'नस्थिहि लोके सदेवके रागो यत्थपि दानि मे सिया ।
न पि में जानामि कीरिसो अथ मग्गेन हतो समलको ॥ ___ इङ्गहालखुया व उज्झितो विसपुत्तोरिवअग्गतो कतो" ।
-थेरी गाथा, गाथा, ३८५-८७. २. “भिक्खुनो सालसम्पन्ना इन्द्रियेसु सुसंवुता"
--वही, १९६. ३. संयुत्त निकाय, ५८/१/८; ५८/१/९. ४. वहो, ४५/१/१०. ५. वही, ४९/१/१०. ६. दीघ निकाय, २/३.
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only
Jain Education International