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११२ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ लोगों को यह जानने का अवसर नहीं देना चाहिए कि यह इस भिक्षुणीसंघ की सदस्या है। उसके साथ जो सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार किया जाता था, उसके मूल में यह सूक्ष्म मनोवैज्ञानिकता निहित थी कि बुरे व्यक्ति भी अच्छे बन सकते हैं और ऐसा कोई कारण नहीं है कि एक बार सत्पथ से विचलित हुई भिक्षुणी को यदि सम्यक् मार्गदर्शन मिले तो वह सुधर नहीं सकती है। बृहत्कल्पभाष्यकार का कथन है कि क्या वर्षाकाल में अत्यधिक जल के कारण अपने किनारों को तोड़ती हई नदी बाद में अपने रास्ते पर नहीं आ जाती है और क्या अंगार का टुकड़ा बाद में शान्त नहीं हो जाता है ?२ -
हम देखते हैं कि ब्रह्मचर्य की साधना कितनी कठिन थी। इसकी गुरुता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि पूरी सावधानी के बावजूद जैन संघ दुराचरण सम्बन्धी घटनाओं को पूरी तरह रोक नों सका। ब्रह्मचर्य-मार्ग में आने वाली कठिनाई का ध्यान प्राचीन आचाय को भी था । उसके निवारण के लिए उन्होंने प्रारम्भ से प्रयत्न भी किया था । संघ में प्रवेश के समय अर्थात् दीक्षा-काल में ही इसकी सूक्ष्म छानबीन की जाती थी । प्रव्रज्या का द्वार सबके लिए खुला होने पर भी कुछ अनुपयुक्त व्यक्तियों को उसमें प्रवेश की आज्ञा नहीं थी। ऋणी, चोर, डाकू, जेल से भागे हुए व्यक्ति, नपुसक एवं क्लीव को दीक्षा लेने की अनुमति नहीं थी। लेकिन जैसे-जैसे संघ का विस्तार बढता गया, इन नियमों की अवहेलना होती गयी और तमाम सतर्कताओं एवं गहरी छानबीन के उपरान्त भी अयोग्य व्यक्ति (पुरुष या स्त्री) संघ में प्रवेश पा ही जाते थे, जो बाद में संघ के लिए सिरदर्द साबित होते थे। ऐसे व्यक्तियों को जिन-शासन की गरिमा से कुछ लेना-देना नहीं था। उन्हें अपने कुकृत्यों के लिए एक आश्रयस्थल को अपेक्षा होती थी, जो उन्हें संघ में प्रवेश पाकर सुलभ हो जाती थी। इसकी आड़ में वे अवसर पाते ही बरे कर्मों को करने से बाज नहीं आते थे।
१. बृहत्कल्पभाष्य, भाग चतुर्थ, ४१२९-४६. २. "उम्मगोण वि गंतुं, ण होति किं सोतवाहिणी सलिला कालेण फुफुगा वि य, विलीयते हसहसेऊणं"
-वही, भाग चतुर्थ, ४१४७. ३. द्रष्टव्य-इसी ग्रन्थ का प्रथम अध्याय.
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