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११० : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ इनमें राग का अत्यधिक महत्त्व है । यह सही भी है, क्योंकि राग के कारण ही एक दूसरे के प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है जिससे आकर्षण बढ़ता है और उचित अवसर मिलने पर वह सम्भोग में परिणत हो जाता है । जैन संघ में ब्रह्मचर्य के खण्डित होने पर साध-साध्वी के लिए कठोरतम दण्ड का विधान था। यद्यपि हिंसा जैसे महाव्रतों को विराधना में बिना प्रायश्चित्त के भी काम चल जाता था, परन्तु ब्रह्मचर्य महाव्रत का भंग, चाहे वह किसी भी परिस्थिति में हुआ हो, बिना प्रायश्चित्त किये उससे छुटकारा नहीं मिल सकता था ।' प्रायश्चित्त अनिवार्य था-भले ही उसकी गुरुता अत्यन्त कम हो। इसका सबसे प्रमुख कारण यह था कि अब्रह्मचर्य का सेवन बिना राग-द्वेष के हो ही नहीं सकता ।' दण्ड का उद्देश्य हमेशा शिक्षात्मक होता था। अभियुक्त को उपयुक्त दण्ड देने के अतिरिक्त अन्य लोगों की शिक्षा देने के लिये इसका प्रयोग किया जाता था।
परन्तु फिर भी यदा-कदा ऐसी घटनाएँ घटती रहती थीं, जिनके उल्लेख हमें तत्कालीन ग्रन्थों से प्राप्त होते हैं। सामान्य व्यक्तियों के अतिरिक्त राजा एवं सामन्तवर्ग के सदस्य इस कुकृत्य में हिस्सा लेते थे। वे सुन्दरी भिक्षुणियों को पकड़ कर अपने अन्तःपुर में रखने के लिए इच्छक रहते थे। इस सम्बन्ध में कालकाचार्य एवं गर्दभिल्ल की कथा सुविख्यात है। कालकाचार्य की भिक्षुणी बहन सरस्वती को उज्जैन के राजा गर्दभिल्ल ने पकड़वा लिया था। बाद में विदेशी शकों की सहायता से युद्ध एवं मन्त्र-प्रयोग के द्वारा वे अपनी बहन को छुड़ाने में सफल हुये। स्पष्ट है कि भिक्षुणी के शील को सुरक्षार्थ अलौकिक शक्तियों एवं मन्त्रों का प्रयोग किया जा सकता था, यद्यपि सामान्य अवस्था में मन्त्रों आदि का प्रयोग निषिद्ध था।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सभी सावधानियों के बावजूद भी कोई न कोई भिक्षुणी समाज के दुराचारी व्यक्तियों के चंगुल में फँस जाती थी और उसके लिए अपने शील को बचाये रखना कठिन हो जाता था, यद्यपि उन्हें हर प्रकार से अपने शील की रक्षा करने का निर्देश दिया गया था। ऐसी
१. निशीथ-एक अध्ययन, १० ६८. २. "मैथुनभावो रागद्वेषाभ्यां विना न भवति"
-बृहत्कल्पभाष्य, भाग पंचम, ४९४४. ३. निशीथ विशेष पूणि, २८६०.
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