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१०८ : जैन और बौद्ध भिक्षुणी-संघ सी दीखने लगे।' भिक्षुणियाँ अपने प्रयोग के लिए डण्ठल-युक्त तुम्बी तथा डण्डेवाला पाद-पोंछन नहीं रख सकती थीं। इसी प्रकार भोजन में वे अखण्ड तालप्रलम्ब नहीं ले सकतो थीं । यहाँ ताल प्रलम्ब का तात्पर्य सभी लम्बे आकार वाले फलों से है। बृहत्कल्पभाष्यकार ने इस प्रकार के फलों की एक लम्बो सूची दो है। यह विश्वास किया गया था कि इन फलों के लम्बे फलक को देखकर भिक्षुणियों में काम-वासना उद्यिप्त हो सकती है । उन्हें यह निर्देश दिया गया था कि पुरुष-स्पर्श से उद्भूत आनन्द का वे स्वाद न लें। साध्वी को बीमारी से कमजोर हो जाने के कारण या कहीं आने-जाने पर गिर जाने के कारण यदि पिता, पुत्र अथवा अन्य कोई पुरुष उठाने, तो ऐसे पुरुष-स्पर्श को पाकर अथवा मल-मूत्र का त्याग करते समय यदि पशु आदि उसके अंगों का स्पर्श कर लें तो ऐसे स्पर्श को पाकर तथा उससे उत्पन्न काम-वासना के आनन्द से विरत रहने को कहा गया था; अन्यथा उसे चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के दण्ड का भागी बनना पड़ता था। संक्षेप में, भिक्षुणियों को यह कठोर निर्देश दिया गया था कि वे किसी भी परिस्थिति में मैथुन का आनन्द न लें।
उपाश्रय के सम्बन्ध में भी ऐसी ही सतर्कता रखी जाती थी। पूर्ण सुरक्षित आवास प्राप्त करने के लिये वे हर सम्भव प्रयत्न करती थीं, परन्तु यदि सूरक्षित आवास नहीं मिलता था तो उन्हें विवश होकर अन्य उपाश्रयों में भी रहना पड़ता था। उदाहरणस्वरूप, अनावृत द्वारा वाले उपाश्रय में रहना उनके लिए निषिद्ध था, परन्तु उपयुक्त उपाश्रय न मिलने पर संघ द्वारा निर्धारित कुछ मर्यादाओं का पालन करते हुए वे उसमें रह सकती थीं। इसके लिए विस्तृत नियमों का प्रतिपादन बृहत्कल्पभाष्य में मिलता है। इसके अनुसार कपाट-रहित द्वार को छिद्र-रहित पर्दे से दोनों
ओर कसकर बाँधा जाता था। सिकड़ी अन्दर से ही खुलती थी। उसके १. "खुज्जकरणी उ कोरइ रूववईणं कुडहहे"-ओघनियुक्ति, ३१९. .. २. बृहत्कल्पसूत्र, ५/३८-४४. ३. "नो कप्पइ. निग्गंथीणं पक्के तालपलम्बे अभिन्ने पडिग्गाहिए'
-वही, १/४. ४. तल नालिएर लउए, कविट्ठ अंबाड अंबए चेव ___अं अग्गपलब, नेयव्वं आणुपुवीए"-बृहत्कल्पभाष्य, भाग द्वितीय, ८५२. ५. बृहत्कल्पसूत्र, ४।१४. ६. वही, ५११३-१४. ७. बृहत्कल्पभाष्य, भाग तृतीय, २३३१-५२.
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