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________________ सिद्धसेन दिवाकर की कृतियाँ - ने अपनी पुस्तक History of Indian Logic में न्याय प्रवेश वृत्ति के वृत्तिकार हरिभद्र को हरिभद्र द्वितीय बतलाते हुए उनका समय ईस्वी सन् १९२० अर्थात् वि०सं० १९७७ निश्चित किया है। इस 'न्याय प्रवेश वृत्ति' पर 'न्याय प्रवेशवृत्तिपञ्जिका' नामक वृत्ति लिखने वाले पार्श्वदेवगण ने अपने समय का सूचन अपनी वृत्ति में दिया है जो इसप्रकार है ग्रहरसरुद्वैर्युक्ते विक्रमसंवत्सरेऽनुराधायाम् । कृष्णायां च नवम्यां फाल्गुन मासस्य निष्पन्ना । । १२५ पण्डित सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने अमुक श्लोक के प्रथम पंक्ति के आधार पर पार्श्वदेवगण का समय वि०सं० १९८९ फलित किया है। महामहिम पण्डित विधुशेखर भट्टाचार्या ने भी इसका समर्थन किया है । १२६ इस आधार पर पण्डित विद्याभूषण ने हरिभद्र द्वितीय का समय वि०सं० ११७७ या विक्रम की १२वीं शती निर्धारित किया है। मुझे ऐसा लगता है कि न्यायावतार पर जिस हरिभद्र के वृत्ति लिखने का उल्लेख है, वह यही हरिभद्र द्वितीय हैं। क्योंकि न्याय प्रवेश एवं न्यायावतार ये दोनों ग्रन्थ विषयवस्तु की दृष्टि से प्रमाणमीमांसा से सम्बद्ध हैं जो एक ही लेखक की वृत्ति होने की परोक्षतया पुष्टि करते हैं । अतः हरिभद्र द्वितीय को न्यायावतार का वृत्तिकार मान लेने पर न्यायावतार सिद्धर्षि की रचना है, इसमें कोई बाधा नहीं रह जाती। ५७ जैन दर्शन के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् डॉ० सागरमल जैन ने न्यायावतार की सिद्धर्षिकृत टीका में पाये जाने वाले 'ऊह या तर्क' स्मृति एवं प्रत्यभिज्ञा आदि प्रमाण जो मूल न्यायावतार में नहीं हैं के आधार पर सिद्धर्षिकृत टीका को उनकी स्वोपज्ञवृत्ति मानने पर संदेह प्रकट किया है। आपका तर्क है कि चूंकि मूल न्यायावतार में प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द तीन प्रमाण की ही चर्चा है, एवं टीका में इन तीन प्रमाणों के अतिरिक्त ‘ऊह' या 'तर्क' प्रमाण की भी चर्चा है । १२७ इसलिये मूलकार व टीकाकार भिन्न-भिन्न होने चाहिए। क्योंकि यदि टीकाकार ही मूलकार भी होते तो भले ही उसकी विशद व्याख्या मूल में न किए होते परन्तु बीजरूप में भी 'ऊह या तर्क' प्रकरण की चर्चा तो किए ही होते । आपका तर्क इस रूप में सिद्धर्षिकृत न्यायावतारटीका को उनकी स्वोपज्ञवृत्ति मानने के विरोध में एक नया तथ्य उद्घाटित करता है, परन्तु यदि हम उमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्र एवं उस पर उनकी स्वोपज्ञवृत्ति ( सभाष्य तत्त्वार्थधिगमसूत्र) एवं हेमचन्द्र कृत योगशास्त्र तथा उसपर उनकी रचित स्वोपज्ञवृत्ति आदि रचनाओं का सम्यक् अनुशीलन करें तो कतिपय विषय बिन्दु ऐसे मिलते हैं, जिनका उल्लेख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002085
Book TitleSiddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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