________________
सिद्धसेन दिवाकर की कृतियाँ
है। अपने मत के समर्थन में उन्होंने प्रो०टूची (Tucci) के एक निबन्ध का उल्लेख करते हुए कहा है कि 'प्रो०टूची ने जर्नल ऑफ रायल एसियाटिक सोसायटी के १९२९ के जुलाई अंक में दिङ्नाग पहले के बौद्ध न्याय पर एक विस्तृत निबन्ध प्रकट किया है। उसमें बौद्ध संस्कृत ग्रन्थों के चीनी और तिब्बती अनुवादों के आधार पर दिङ्नाग के पहले बौद्धों में न्यायदर्शन कितना विस्तृत और विकसित था, यह बताने का समर्थ प्रयत्न किया है। उन्होंने योगाचारभूमिशास्त्र एवं प्रकरणार्यवाचा नामक ग्रन्थों के वर्णन में प्रत्यक्ष की व्याख्या इस प्रकार दी है____Pratyaksa according to A [i.e. Yogacar-Bhumi Sastra and Prakarnāryavācā] must be 'aparokśa', unmixed with imagination, nirvikalpa and devoted of error abhrānta or avyabhicāri'. '
पण्डित सुखलाल जी के अनुसार इन ग्रन्थों में प्रत्यक्ष की जो व्याख्या दी है उसके अनुसार प्रत्यक्ष को अपरोक्ष, कल्पनापोढ, निर्विकल्प और अभ्रान्त अथवा अव्यभिचारी होना चाहिए। साथ ही 'अभ्रान्त' तथा 'अव्यभिचारी' शब्दों पर टिप्पणी देते हुए उनका कथन है कि ये दोनों पयार्यवाची शब्द हैं और चीनी तथा तिब्बती शब्दों का इस तरह दोनों रूप में अनुवाद हो सकता है, एवं फिर स्वयं ‘अभ्रान्त' शब्द को ही स्वीकार करते हुए यह अनुमान लगाया है कि धर्मकीर्ति ने प्रत्यक्ष की व्याख्या में अभ्रान्त शब्द की जो वृद्धि की है वह उनके द्वारा की गई कोई नई वृद्धि नहीं अपितु सौत्रान्तिकों की पुरानी व्याख्या को स्वीकार करके उन्होंने दिङ्नाग की व्याख्या में इस प्रकार से सुधार किया है। योगाचार्यभूमिशास्त्र असङ्ग की कृति है। असंग का समय ईसा की चौथी शताब्दी का मध्यकाल है। इसप्रकार प्रत्यक्ष के लक्षण में अभ्रान्त शब्द का प्रयोग तथा अभ्रांतता का विचार विक्रम की चौथी-पांचवीं शताब्दी के पहले भी भली-भांति ज्ञात था। अत: सिद्धसेन दिवाकर को मैत्रेय के बाद किन्तु धर्मकीर्ति से पहले मानने में कोई अन्तराय नहीं आता।"
पण्डित श्री दलसुखभाई मालवणिया ने अपने न्यायावतारवार्तिकवृत्ति के संस्करण में 'न्यायावतार की तुलना' शीर्षक प्रथम परिशिष्ट में न्यायावतार की अनेक बौद्ध ग्रन्थों के साथ तुलना कर पण्डित सुखलाल जी के ही मत का समर्थन किया है। पं० मालवणिया का कथन है कि न्यायावतार के अनुशीलन से ऐसा प्रतीत होता है कि इस कृति के कर्ता का दिङ्नाग के ग्रन्थों से परिचय अवश्य था। अपने मत के समर्थन में पं० मालवणिया'०३ ने कुछ बिन्दुओं पर ध्यान आकर्षित किया है।
१. दिङ्नाग ने परार्थानुमान को हेतु वचन एवं पक्षादि वचन से समृद्ध किया है और ये दोनों ही लक्षण न्यायावतार की तेरहवीं कारिका में लिये गये हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org