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________________ सिद्धसेन दिवाकर की कृतियाँ शताब्दी) आप्तमीमांसा ९ रत्नकरण्डवाकाचार एवं हरिभद्रकृत (८वीं शती) अष्टकप्रकरण १ और षड्दर्शनसमुच्चय-२ आदि ग्रन्थों में भी न्यायावतार की कारिकाएँ उद्धृत की गई हैं। प्रबन्धों में प्रभावकचरित (१४वीं शती) ही एकमात्र प्रबन्ध है जिसमें न्यायावतार को द्वात्रिंशिकाओं में परिगणित कर उसे सिद्धसेन दिवाकर की रचना बताई गई है। शेष चार प्रबन्धों में ऐसा कोई भी उल्लेख नहीं मिलता। न्यायावतार की उपलब्ध प्रतियों के अनशीलन से ऐसा कोई भी उल्लेख उनके नाम आदि का नहीं मिलता जिससे यह प्रतिफलित हो सके कि यह सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित है। पण्डित सुखलाल जी८३ प्रभृत विद्वानों ने प्रभावकचरित के उल्लेख को ही आधार मानकर न्यायावतार को २२वी द्वात्रिंशिका मानते हुए सिद्धसेन की कृति माना है। पण्डित जुगलकिशोर मुख्तार ने प्रभावकचरित के उल्लेख के आधार पर न्यायावतार को सिद्धसेन की कृति मानने के मत का खण्डन किया है। अपने मत के समर्थन में उन्होंने कहा है कि न्यायावतार, सन्मतिकार सिद्धसेन की कृति नहीं हो सकती क्योंकि 'यह सन्मतिसूत्र से भी एक शताब्दी बाद का बना हुआ है, और इस पर समन्तभद्र स्वामी के उत्तरकालीन पात्रस्वामी (९वीं शती) जैसे जैनाचार्यों का ही नहीं किन्तु धर्मकीर्ति और धर्मोत्तर जैसे बौद्धाचार्यों का भी स्पष्ट प्रभाव है। इस सन्दर्भ में पण्डित मुख्तार जी ने डॉ०हर्मन जैकोबी के मतों का भी उल्लेख किया है। प्रो०हर्मन जैकोबी-६ और उनके मत के उपजीवी प्रो० पी० एल० वैद्य ने न्यायावतार में आने वाले ‘अभ्रान्त' एवं 'भ्रान्त' पदों, जो क्रमश: पांचवें एवं छठे श्लोक में आते हैं, को आधार बनाकर सिद्धसेन दिवाकर को धर्मकीर्ति के बाद का रचनाकार सिद्ध करने का प्रयास किया है। उनका ऐसा मानना है कि प्रमाण की व्याख्या में 'अभ्रान्त' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग करने वाले बौद्ध आचार्य धर्मकीर्ति हैं। धर्मकीर्ति ने प्रमाणसमुच्चय के प्रथम परिच्छेद में आने वाली दिङ्नाग की प्रत्यक्ष की व्याख्या 'प्रत्यक्ष कल्पनापोढं नामजात्याद्यसंयुतम्' को 'अभ्रान्त' पद से अधिक शुद्ध किया है। न्यायावतार के चौथे पद्य में प्रत्यक्ष का लक्षण अकलङ्कदेव की तरह 'प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानम्' न देकर जो 'अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशं प्रत्यक्षम्'९० दिया है एवं अगले पद्य में अनुमान का लक्षण देते हुए ‘तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात्समक्षवत्'९१ कहते हुये अनुमान की प्रत्यक्ष भांति ‘अभ्रांत' है. ऐसा जो रचनाकार का कथन है, उससे ध्वनित होता है कि सिद्धसेन के सामने उनके लक्ष्य में धर्मकीर्ति का उक्त लक्षण भी स्थित था क्योंकि उन्होंने अपने लक्षण में ग्राहक पद के प्रयोग के द्वारा जहाँ प्रत्यक्ष को व्यवसायात्मक ज्ञान बतलाकर धर्मकीर्ति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002085
Book TitleSiddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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