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पुरोवाक्
सिद्धसेन दिवाकर जैन दार्शनिक साहित्य के ऐसे समर्थ आचार्य रहे हैं जिन्होंने न केवल सैद्धान्तिक एवं आगमिक परिभाषाओं और शब्दों को दर्शन की परिसीमाओं में बांधने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया अपितु उन्हें एक नया आयाम भी दिया। उन्हें जैन परम्परा में तर्क विद्या और तर्क प्रधान संस्कृत वाङ्मय का आद्य प्रणेता कहा गया है। वे आद्य जैन दार्शनिक होने के साथ-साथ आद्य सर्वभारतीय दर्शनों के संग्राहक भी हैं। जैन दर्शन के प्राणरूप अनेकान्त दृष्टि का व्यवस्थित और नये सिरे से निरूपण करना, तर्कशैली से उसका पृथक्करण एवं प्रतिवादियों के आक्षेपों का निराकरण कर तार्किकों में उसे प्रतिष्ठित करना, दर्शनान्तरों में जैन दर्शन के स्थान एवं महत्त्व का प्रतिपादन करना तथा नवीन स्फुरित विचारणाओं को अनेकान्त की कसौटी पर कसना दिवाकर की रचनाओं का मुख्य उद्देश्य रहा है, और अपने इस उद्देश्य में वे काफी हद तक सफल भी हुए हैं। सिद्धसेन दिवाकर को जिन रचनाओं का कर्ता माना जाता हैं उनमें सन्मतितर्क, द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, न्यायावतार एवं कल्याणमन्दिरस्तोत्र प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त भी कई एक कृतियाँ हैं जिनके कर्ता वे माने जाते हैं, परन्तु उपलब्ध नहीं हैं। आधुनिक विद्वानों ने सन्मतिसूत्र एवं कुछ द्वात्रिंशिकाओं के अतिरिक्त उनकी सभी रचनाओं को उनके द्वारा रचित मानने में सन्देह व्यक्त किया है।
यही कारण था जिससे मेरे अन्तस् में इस विषय पर कार्य करने की उत्सुकता जागृत हुई। जैनधर्म-दर्शन के महामनीषि पद्मभूषण पं० दलसुख मालवणिया कुछ वर्ष पूर्व जब विद्यापीठ में पधारे थे, उस समय आप से इस सन्दर्भ में मेरी चर्चा हुई, विशेषकर 'न्यायावतार' के सन्दर्भ में। उन्होंने कहा 'अब जबकि नित नये शोध हो रहे हैं और पुरानी मान्यताएँ टूटती जा रही हैं सिद्धसेन दिवाकर की कृतियों को भी नये सिरे से व्याख्यायित किया जाना चाहिए। फलत: मैंने श्रद्धेय गुरुवर्य डॉ०सागरमल जैन की अनुमति से इस विषय पर कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। इस कृति के प्रणयन के दौरान अनेक विद्वानों से साक्षात्कार एवं विचार-विमर्श का अवसर मिला जिससे हमारे निष्कर्षों को बल मिला।
प्रस्तुत कृति के प्रथम अध्याय में हमने सिद्धसेन दिवाकर के सत्ता समय को अनेक साहित्यिक साक्ष्यों के आलोक में प्रतिस्थापित करने का प्रयास किया है।
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