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अध्याय-१
सिद्धसेन दिवाकर और उनका समय
जैन परम्परा में तर्क विद्या एवं तर्कप्रधान संस्कृत वाङ्मय के अमिट हस्ताक्षर आचार्य सिद्धसेन दिवाकर एक उच्चकोटि के साहित्यकार, प्रकृष्टवादी स्वतन्त्र दार्शनिक एवं चिन्तक थे। उनके उदार व्यक्तित्व सूक्ष्मचिन्तन एवं गम्भीर दार्शनिक दृष्टि ने सम्पूर्ण जैन समाज को प्रभावित किया, यही कारण है कि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्परा के विद्वान आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में आचार्य सिद्धसेन का विशिष्ट आदरभाव सहित स्मरण किया है। ___आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ पंचवस्तुक' में सिद्धसेन को दुस्सम कालरात्रि में दिवाकर के समान प्रकाशक माना है एवं उन्हें श्रुतकेवली तुल्य सम्मान दिया है। ___ हरिवंश पुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन ने सिद्धसेन की सूक्तियों को तीर्थंकर ऋषभदेव की सूक्तियों के समान माना है। आदिपुराण में उन्होंने कहा है कि वे सिद्धसेन जयवंत हों जो प्रवादी रूपी हाथियों के झुण्ड के लिये सिंह के समान हैं। नैगमादि नय ही जिनके केसर (अयाल-गरदन पर के बाल) तथा अस्ति नास्ति आदि विकल्प ही जिनके तीक्ष्ण नाखून हैं।'३
कालिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने सिद्धसेन की प्रतिभा के सामने नतमस्तक होते हुए कहा है कि
क्व सिद्धसेनस्तुतयो महार्था अशिक्षितालापकला क्व चैषा । तथाऽपि यूथाधिपतेः पथिस्थः स्खलद्गतिस्तस्य शिशुर्न शोच्यः।।।
श्री मुनिकल्याण कीर्ति ने अपने यशोधरचरित में आचार्य को महाप्रभावशाली कवि की संज्ञा देते हुए कहा है कि
मदुक्ति कल्पलतिकां सिञ्चन्तः करुणामृतः।
कवयः सिद्धसेनाद्या वर्धयन्तु हृदिस्थिताः।। अर्थात् 'हृदय में स्थित श्री सिद्धसेन जैसे कवि मेरी उक्ति रूपी छोटी सी कल्पलता को करुणामृत से सींचते हुए उसे वर्धित करें, जिससे मैं सिद्धसेन जैसे
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