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भूमिका
XV
सिद्ध होंगे। प्रथम तो यही निश्चित नहीं है कि रत्नकरण्डकश्रावकाचार समन्तभद्र की कृति है या नहीं। उसमें जहाँ तक 'अभ्रान्त' पद का प्रश्न है- प्रोट्ची के अनुसार यह धर्मकीर्ति के पूर्व भी बौद्ध न्याय में प्रचलित था। अनुशीलन करने पर असंग के गुरु मैत्रेय की कृतियों में एवं स्वयं असंग की कृति अभिधर्म समुच्चय में प्रत्यक्ष की परिभाषा में 'अभ्रान्त' पद का प्रयोग हुआ है। अभिधर्म समुच्चय में असंग स्वयं लिखते हैं
प्रत्यक्षं स्व सत्प्रकाशाभ्रान्तोऽर्थ।१९ ज्ञातव्य है कि असङ्ग वसबन्ध के बड़े भाई थे और इनका काल लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी है। अत: सिद्धसेन दिवाकर की कृति न्यायावतार में अभ्रान्त पद को देखकर उसे न तो परवर्ती माना जा सकता है और न यह माना जा सकता है कि वह धर्मकीर्ति से परवर्ती किसी अन्य सिद्धसेन की कृति है। यदि बौद्ध न्याय में अभ्रान्त पद का उल्लेख तीसरी-चौथी शताब्दी के ग्रन्थों में उपलब्ध है तो फिर न्यायावतार (चतुर्थशती) में अभ्रान्त पद के प्रयोग अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता है। डॉ० पाण्डेय ने भी अपनी इस कृति में इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है फिर भी वे न्यायावतार को सिद्धसेन की कृति मानने में संकोच कर रहे हैं?
उनका दूसरा तर्क यह है कि न्यायावतार की अनुमान-प्रमाण की परिभाषा पर दिगम्बर विद्वान् पात्र केसरी का प्रभाव है। उनके अनुसार न्यायावतार की २२वीं कारिका का पात्र केसरी की विलक्षण कदर्थन की कारिका से आंशिक साम्य है, लेकिन इस आधार पर यह मानना की पात्र केसरी (७वीं शती) का प्रभाव न्यायावतार पर है मुझे तर्कसंगत नहीं जान पड़ता, क्योंकि इसके विपरीत यह भी तो माना जा सकता है कि सिद्धसेन दिवाकर का ही अनुसरण पात्र केसरी ने किया है। ___तीसरे जब न्यायावतार के वार्तिक में शान्तिसूरि स्पष्ट रूप से 'सिद्धसेनार्क सूत्रितम्' (न्यायावतारसूत्र वार्तिक १/१) ऐसा स्पष्ट उल्लेख करते हैं तो फिर यह संदेह कैसे किया जा सकता है कि न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर पदवी वाले सिद्धसेन नहीं हैं। यदि न्यायावतार सिद्धर्षि की कृति होती तो वार्तिककार शान्त्याचार्य जो उनसे लगभग दो सौ वर्ष पश्चात हुए हैं, यह उल्लेख अवश्य करते। उनके द्वारा सिद्धसेन के लिए 'अर्क' विशेषण का प्रयोग यही सिद्ध करता है कि न्यायावतार के कर्ता अन्य कोई सिद्धसेन न होकर सिद्धसेन दिवाकर ही हैं। क्योंकि अर्क का मतलब स्पष्ट रूप से दिवाकर (सूर्य) ही है।
पुन: न्यायावतार की कारिकाओं की समन्तभद्र की कारिकाओं में समरूपता दिखाई देने पर भी न्यायावतार को सिद्धसेन दिवाकरकृत मानने पर बाधा नहीं
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