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________________ भूमिका VII सिद्धसेन, कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन और न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन-ये तीनों अलग-अलग व्यक्ति हैं। ११ उनकी दृष्टि में सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर दिगम्बर हैं- शेष दोनों श्वेताम्बर हैं। किन्तु यह उनका दुराग्रह मात्र है-वे यह बता पाने में पूर्णत: असमर्थ रहे हैं कि आखिर ये दोनों सिद्धसेन कौन हैं? सिद्धसेन के जिन ग्रन्थों में दिगम्बर मान्यता का पोषण नहीं होता हो, उन्हें अन्य किसी सिद्धसेन की कृति कहकर छुटाकारा पा लेना उचित नहीं कहा जा सकता। उन्हें यह बताना चाहिए कि आखिर ये द्वात्रिंशिकायें कौन से सिद्धसेन की कृति हैं और क्यों इन्हें अन्य सिद्धसेन की कृति माना जाना चाहिए? मात्र श्वेताम्बर मान्यताओं का उल्लेख होने से उन्हें सिद्धसेन की कृति होने से नकार देना तो युक्तिसंगत नहीं है। यह तो तभी सम्भव है जब अन्य सुस्पष्ट आधारों पर यह सिद्ध हो चुका हो कि सन्मतिसत्र के कर्ता सिद्धसेन दिगम्बर हैं। इसके विपरीत प्रतिभा समानता के आधार पर पं० सुखलाल जी इन द्वात्रिंशिकाओं को सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की ही कृतियाँ मानते हैं। १२ श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेन दिवाकर, सिद्धसेनगणि और सिद्धर्षि का उल्लेख मिलता है, किन्तु इनमें सिद्धसेन दिवाकर को ही सन्मतिसूत्र, स्तुतियों (द्वात्रिंशिकाओं) और न्यायावतार का कर्ता माना गया हैं। सिद्धसेनगणि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की वृत्ति के कर्ता हैं और सिद्धर्षि-सिद्धसेन के ग्रन्थ न्यायावतार के टीकाकार हैं। सिद्धसेनगणि और सिद्धर्षि को कहीं भी द्वात्रिंशिकाओं और न्यायावतार का कर्ता नहीं कहा गया है। ___ पुन: आज तक एक भी ऐसा प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि किसी भी यापनीय या दिगम्बर आचार्य के द्वारा महाराष्ट्री प्राकृत में कोई ग्रन्थ लिखा गया हो। यापनीय और दिगम्बर आचार्यों ने जो कुछ भी प्राकृत में लिखा है वह सब शौरसेनी प्राकृत में ही लिखा है, जबकि सन्मतिसूत्र स्पष्टत: महाराष्ट्री प्राकृत में लिखा गया है। सन्मतिसूत्र का महाराष्ट्री प्राकृत में लिखा जाना ही इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि सिद्धसेन यापनीय या दिगम्बर नहीं हैं। वे या तो श्वेताम्बर हैं या फिर उत्तर भारत की उस निर्ग्रन्थ धारा के सदस्य हैं, जिससे श्वेताम्बर और यापनीय दोनों विकसित हुए हैं। किन्तु वे दिगम्बर तो किसी भी स्थिति में नहीं हैं। सिद्धसेन का सन्मतिसूत्र एक दार्शनिक ग्रन्थ है और उस काल तक स्त्री-मुक्ति और केवली-भक्ति जैसे प्रश्न उत्पन्न ही नहीं हए थे। अत: सन्मतिसूत्र में न तो इनका समर्थन है और न खण्डन ही। इस काल में उत्तरभारत में आचार और विचार के क्षेत्र में जैन संघ में विभिन्न मान्यताएँ जन्म ले चुकी थीं, किन्तु अभी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण श्वेताम्बर, दिगम्बर, यापनीय आदि रूपों में नहीं हो पाया था। वह युग था जब जैन परम्परा में तार्किक चिन्तन प्रारम्भ हो चुका था और धार्मिक एवं आगमिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002085
Book TitleSiddhsen Diwakar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size5 MB
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