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________________ तीर्थंकरों की दिव्य वाणी से जितना अंश निःसृत होता है उसे मुख्य गणधर धारण कर बारह भागों में क्रमबद्ध करते हैं । भगवान् महावीर की वारणी को गौतम गणधर ने धाररण किया था इसीलिए उनके अन्य गरणधरों की अपेक्षा गौतम गणधर को अधिक महत्त्व प्राप्त है । शास्त्रकारों ने सम्पूर्ण श्रुत को दो भागों में बांटा है- १. अंगप्रविष्ट र २. अंगबाह्य । गौतम गणधर ने भगवान् महावीर की वाणी को धारण करके उसे क्रमबद्ध करके बारह अंगों में विभक्त किया वे अंगप्रविष्ट तथा उनके शिष्यों, प्रशिष्यों, प्राचार्यों आदि द्वारा उसके आधार पर रचे गये ग्रंथ 'अंगबाह्य' कहे जाते हैं । यहां यह बात स्मरणीय है कि तीर्थंकर वे चाहे किसी भी काल में हों शाश्वत सत्यों का, वस्तुस्वभावस्वरूप धर्म का तो समान रूप से व्याख्यान करते हैं किन्तु प्रत्येक तीर्थंकर अपने-अपने देश, काल और मानव की बुद्धि आदि परिस्थितियों का ध्यान कर उसके अनुसार व्यवहार धर्म का उपदेश देते हैं । तीर्थंकर 'जिन' कहलाते हैं क्योंकि वे कर्मरूपी शत्रुओं को जीतकर सांसारिक बन्धनों से मुक्तिलाभ करते हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट धर्म 'जैनधर्म' कहलाता है । श्रहिंसामूलक विचार, आचार, स्याद्वादमूलक उच्चार और अपरिग्रहमूलक समाज इन चार स्तम्भों पर इसका सम्पूर्ण ढांचा खड़ा है, सर्वप्राणिसमभाव से इसका निर्माण हुआ है, इसलिए यह सर्वोदय तीर्थ है, मंगलस्वरूप है । भगवान् महावीर के मोक्षगमन के पश्चात् ६८३ वर्षों तक आचार्यों को श्रुतज्ञान मौखिक रूप से अपनी गुरुपरम्परा से प्राप्त होता रहा। प्राचार्य भद्रबाहु 'प्रथम' अन्तिम श्रुतकेवली थे । इनके समय में उत्तर भारत में बारह वर्ष का भयंकर अकाल पड़ा और [ ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002084
Book TitleAcharya Kundkunda Ek Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1988
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, E000, E005, N000, & N015
File Size1 MB
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