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________________ अर्थात् जो दर्शन (श्रद्धा) से भ्रष्ट हैं और दर्शनधारियों से अपने को नमस्कार करवाते हैं वे ( परभव में ) लूले - गूंगे होते है । उन्हें बोधि की प्राप्ति दुर्लभ है ॥ १२ ॥ जो लज्जा, प्रतिष्ठा अथवा भय से जानते हुए भी उन दर्शनहीनों के चरणों में पड़ते हैं, उन्हें नमस्कार करते हैं, पाप का अनुमोदन करनेवाले होने के कारण उनको भी बोधि प्राप्त नहीं होती ॥१३॥ मुमुक्षु की लक्ष्यपूर्ति में पुण्य और पाप को 'सोने की बेड़ी' और 'लोहे की बेड़ी' कहकर प्राचार्य कुन्दकुन्द ने दोनों को समकक्ष मानकर समस्त अध्यात्मजगत् में एक क्रांतिकारी उद्घोषणा की है जो जैनदर्शन की एक अनूठी एवं मौलिक देन है । रचनाएं १. पंचास्तिकाय संग्रह - जैसा कि नाम से ही प्रकट है इसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश इन पांच अस्तिकायों का कथन किया गया है । इस पर अमृतचन्द्राचार्य तथा जयसेनाचार्य की संस्कृत टीकाएं हैं । २. प्रवचनसार - इसमें प्रकृष्टों / श्रन्तों के प्रवचनों का सार निबद्ध है । इस ग्रंथ पर आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका, जयसेनाचार्य की तात्पर्यवृत्ति टीकाएं हैं । ३. समयसार - इसमें शुद्धनय का आश्रय लेकर नवतत्त्वों का विवेचन किया गया है । यह ग्रंथ 'शुद्ध श्रात्मतत्त्व' का प्रतिपादन करता है । इस पर भी आचार्य अमृतचन्द्र और जयसेन की टीकाएं उपलब्ध हैं । ४. नियमसार - इस रचना में रत्नत्रय, छह द्रव्य, नवतत्त्व, १०] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002084
Book TitleAcharya Kundkunda Ek Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal Polyaka
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year1988
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, History, E000, E005, N000, & N015
File Size1 MB
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