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परिशिष्ट- १
वंश - परिचय तालिकाएँ
हरिवंश
दसवें तीर्थंकर भगवान् शीतलनाथ के निर्वाण के पश्चात् और ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ के पूर्व हरिवंश की स्थापना हुई । उस समय वत्सदेश में कौशंबी नामक नगरी थी, वहाँ का राजा सुमुख था । उसने एक दिन वीरक नामक व्यक्ति की पत्नी वनमाला देखी । वनमाला का रूप अत्यन्त सुन्दर था, वह उस पर मुग्ध हो गया। उसने वनमाला को राजमहलों में बुला लिया । पत्नी के विरह में वीरक अर्द विक्षिप्त हो गया । वनमाला राजमहलों में आनन्द क्रीड़ा करने लगी ।
एक दिन राजा सुमुख प्रिया वनमाला के साथ वन विहार को गया । वहाँ पर वीरक की दयनीय अवस्था देखकर अपने कुकृत्य के लिए पश्चात्ताप करने लगा । मैंने कितना भयंकर दुष्कृत्य किया है । मेरे ही कारण वीरक की यह अवस्था हुई है । वनमाला को भी अपने कृत्य पर पश्चात्ताप हुआ । उन्होंने उस समय सरल और भद्र परिणामों के कारण मानव के आयु का बंधन किया । सहसा आकाश से विद्युत् गिरने से दोनों का प्राणान्त हो गया और वे हरिवर्ष नामक भोगभूमि में युगलिक के रूप में उत्पन्न हुए ।
कुछ समय के पश्चात् वीरक भी मरकर बालतप के कारण सौधर्म कल्प में किल्बिषी देव बना । विभंग ज्ञान से उसने देखा कि मेरा शत्रु 'हरि' अपनी प्रिया 'हरिणी' के साथ अनपवर्त्य आयु से उत्पन्न होकर आनन्द कीड़ा कर रहा है।
वह क्रुद्ध होकर विचार करने लगा कि क्यों न मैं इन दुष्टों को निष्ठुरतापूर्वक कुचल कर चूर्ण कर दूं ? मेरा अपकार करके भी ये भोगभूमि में उत्पन्न हुए हैं । किन्तु, मैं इस प्रकार इन्हें मार नहीं सकता; क्योंकि युगलिक निश्चित रूप से मरकर देव ही बनते हैं । भविष्य में ये यहाँ से मरकर देव न बनें और ये अपार दुःख भोगें ऐसा मुझे प्रयत्न करना चाहिए ।
उसने अपने विशिष्ट ज्ञान से देखा भरत क्षेत्र में चंपानगरी का नरेश अभीअभी काल धर्म को प्राप्त हुआ है, अतः इन्हें वहाँ पहुंचा दूं; क्योंकि एक दिन भी
१. चउपन्न महापुरिस चरियं पृ० १८
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