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________________ तुलनात्मक निष्कर्ष, तथ्य एवं उपसंहार २६१ जैन परंपरा में उत्तारवाद इसके विपरीत जैन परंपरा में श्रीकृष्ण को वासुदेव रूप में माना गया है। उसमें उनके अवतार होने की मान्यता प्राप्त नहीं है । वस्तुस्थिति यह है कि जैन अवतारवाद को ही स्वीकार नहीं करता। तीर्थंकर को भी अवतार नहीं माना गया है। जैन दर्शन में तो मनुष्य ही सर्वोपरि महत्ता संपन्न है। वही संमार्गानुसरण से शीर्षस्थ स्थान पर पहुंच जाता है। ईश्वर जैसी परिकल्पना भी जैन-चिंतन का विषय कभी नहीं रही। मानव सत्ता से ऊपर किसी का अस्तित्व स्वीकार्य नहीं समझा गया है। ऐसी स्थिति में जैन-विश्वास अवतारवाद के पक्ष में नहीं अपितु उत्तारवाद के पक्ष में है। ईश्वर की स्थिति तो निविकार है। अवतार लेकर उसे विकारों की ओर अग्रसर होना पड़ता है। निवत्ति के स्थान पर प्रवृत्ति को चुनना पड़ता है। पुण्य और पाप में उसे पुण्य का मार्ग अपनाना होता है। यह महानता उसकी आंतरिक शक्तियों का विकास है इसके विपरीत जैन-परंपरा उत्कर्ष की परंपरा होने से जैन साधक विकार से निर्विकार की ओर, प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर और आसक्ति से विरक्ति की ओर यात्रा करता है। यह पवित्र यात्रा है, इसी को जैन परंपरा में उत्तार कहते हैं। इस उत्तार में मानव नीचे से ऊपर की ओर जाता है। वैदिक परंपरा में ईश्वर ऊपर से नीचे की ओर जाता है, तो जैन परंपरा में इसका ठीक उल्टा है। जैन परंपरा मनुष्य को विकृति से संस्कृति की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देती है। यही नहीं संस्कृति से भी प्रकृति की ओर बढ़ाती है। मनुष्य जन्म और स्वभाव से ही राग-द्वेष-ग्रस्त प्राणी होता है। इस विकृति से क्रमशः मुक्त होकर वही विकारहीन अनासक्त और निलिप्त रूप ग्रहण कर लेता है। यह संस्कृति का विकास है। पूर्ण रूप से कर्म-मुक्त होकर वह शुद्ध सिद्ध अवस्था ग्रहण कर लेता है। यही तो प्रकृति है । यह सिद्धावस्था वह दशा है जिसमें वह अनंतकाल के लिए अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन अनंत सुख और अनंत शक्ति में लीन हो जाता है। जैन धर्म इसी परमावस्था की प्रेरणा सामान्य जन को देता है, उसे इस हेतु मार्ग और साधन सुझाता है और मार्ग पर गतिमान होने की शक्ति भी देता है। इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य चाहे कितना ही विषय-वासना में लिप्त हो वह उच्चतम स्थिति में पहुंचने की क्षमता रखता है । तीर्थंकर गण जो महानतम पुरुषों की गणना में आते हैं, वे भी आरंभिक जीवन में अतिसाधारण से सांसारिक मनुष्य रहे । उनका उत्तार हुआ। तीर्थंकरों को ईश्वर का अव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002083
Book TitleJain Sahitya me Shrikrishna Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Literature
File Size12 MB
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