________________
(viii) ज्यों शोध करता गया त्यों-त्यों मुझे कई अज्ञात अभिनव ग्रन्थ भी प्राप्त हुए; जिन्हें पढ़कर मेरा मन मयूर नाच उठा और हृदय कमल खिल उठा ।
1
यह स्मरणीय है कि वैदिक परम्परा के श्रीकृष्ण का जो रूप है उससे जैन परम्परा के श्रीकृष्ण का रूप कुछ पृथक् है । जैन परम्परा में श्रीकृष्ण एक श्लाघनीय पुरुष हैं । भगवान महावीर ने उन्हें उत्तम पुरुष कहा है। प्रारम्भ से लेकर जीवन की सान्ध्य वेला तक किसी भी प्रकार की स्खलना उनके जीवन में नहीं है। भगवान अरिष्टनेमि के सम्पर्क में आकर उनका जीवन अहिंसा की भावना से ओत-प्रोत है । मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जीवन में शिकार आदि का प्रसंग देखने को मिलता है पर श्रीकृष्ण के जीवन में ऐसा कोई प्रसंग नहीं है । वासुदेव होने के कारण उन्हें ३६० संग्राम करने पड़ते हैं, पर वे युद्ध प्रेमी नहीं हैं । वे सदा ही युद्ध को टालने का प्रयास करते रहे हैं । उन्होंने कभी भी मांसाहार किया हो ऐसा प्रसंग नहीं मिलता। वे पूर्ण शाकाहारी थे । वासुदेव होने के कारण विविध सुन्दरियों के साथ विवाह उन्होंने अवश्य किया था, पर वे भोग को श्रेष्ठ नहीं मानते थे । उन्होंने अपने पुत्र-पुत्रियों व धर्मपत्नियों को संयम साधना ग्रहण करने की प्रेरणा दी थी । जो संयम साधना स्वीकार करते थे उन्हें वे पूर्ण सहयोग प्रदान करते । वे पूर्ण गुणानुरागी हैं। किसी के भी दुर्गुण देखना उन्हें पसन्द नहीं है । उन्होंने कुत्ते के चमचमाते हुए दांतों को देखकर प्रसन्नता व्यक्त की, किन्तु कीड़ों से कुलबुलाते हुए तन की ओर उनका ध्यान नहीं गया और न भयंकर दुर्गन्ध की ओर ही उन्होंने ध्यान दिया । उनका जीवन परोपकार से मण्डित है । लड़खड़ाते हुए वृद्ध की दयनीय स्थिति देखकर उनका हृदय करुणा से आप्लावित हो उठा और उन्होंने स्वयं ईंट उठाकर एक ज्वलन्त आदर्श उपस्थित किया । अर्धचक्री होने पर भी उनके अन्तर्मानस में मातृभक्ति अत्यन्त प्रबल है । वे माँ को नमस्कार करते हैं और माँ की व्यथा को दूर करने के लिए साधना भी करते हैं । उनका सम्पूर्ण जीवन प्रकाश स्तम्भ की तरह प्रकाशित है । भूले भटके जीवनराहियों का मार्ग-दर्शन देता है ।
मैंने अपने शोध-प्रबन्ध में जैन प्राकृत आगम साहित्य में, प्राकृत आगमेतर साहित्य में, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी जैन साहित्य में श्रीकृष्ण का चरित्र जहाँ-जहाँ आया है, उन सभी ग्रन्थों का तुलनात्मक दृष्टि से परिचय भी दिया है । कुछ ऐसे तथ्य भी प्रस्तुत किये हैं जो सर्वथा नवीन और मौलिक हैं ।
शोध-प्रबन्ध लिखने में परम श्रद्धेय पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी म० और गुरुदेव उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी म० का सतत सहयोग तथा मार्गदर्शन मुझे मिला है। पूना के डा० न० ची० जोगलेकर जी निदेशक ने भी मुझे समय-समय पर सहयोग प्रदान किया है। पूजनीया मातेश्वरी महासती श्री प्रकाशवती जी म० तथा ज्येष्ठ बन्धु श्री रमेश मुनि जी, श्री सुरेन्द्र मुनि व डॉ०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org