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जैन एवं बौद्ध शिक्षा के उद्देश्य एवं विषय चार आर्यसत्यों की स्थापना की। 'आर्यसत्य' नाम की सार्थकता पर प्रकाश डालते हुए चन्द्रकीर्ति ने कहा है कि जिन सत्यों को केवल आर्य ही समझते हैं, उन्हें आर्यसत्य कहते हैं। तब प्रश्न उपस्थित होता है कि आर्य लोग कौन होते हैं? इसके सम्बन्ध में कहा गया है कि वे आँख की तरह होते हैं जिन्हें छोटे से भी कष्ट का अनुभव होता है, जैसे आँख में ऊन का छोटा-सा कण पड़ जाने से आँख को कष्ट पहँचता है। अन्य लोग हथेली की तरह होते हैं जिन्हें बड़ा से बड़ा कष्ट भी उद्विग्न नहीं कर पाता है।९१ ये चार आर्यसत्य निम्न हैं---
(१) दुःख, (२) दुःख समुदय, (३) दुःख निरोध, (४) दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद्।
व्यास९२ ने अध्यात्मशास्त्र को चिकित्साशास्त्र के समान चतुर्वृह बताया है। जिस प्रकार चिकित्साशास्त्र में रोग, रोगहेतु, आरोग्य तथा भैषज्य है उसी प्रकार दर्शनशास्त्र में संसार अर्थात् दुःख, दु:ख हेतु, मोक्ष अर्थात् दुःख का नाश तथा मोक्ष के उपायये चार सत्य माने जाते हैं। दुःख
इस जगत और जीवन में जो कुछ भी हम देखते हैं वह सब दुःखमय है। जीवन और जगत को देखकर उस पर मनन एवं चिन्तन करके बुद्ध इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार में सभी दुःखी हैं- चाहे वे मनुष्य हों या पशु, चाहे पक्षी हों या जीव-जन्तु। जन्म कष्टमय है, नाश कष्टमय है, रोग कष्टमय है तथा मरण भी कष्टमय है। प्रिय वस्तु का संयोग सुखमय है और प्रिय वस्तु के साथ वियोग दुःखमय है। ठीक इसके विपरीत अरुचिकर का संयोग दुःखमय है और सुखकर का वियोग कष्टमय है। हा तरह सभी कुछ कष्टमय है। संक्षेप में राग से उत्पन्न पञ्चस्कन्ध ही कष्टमय है। 'धम्मपद' में कहा गया है कि यह संसार जलते हुए घर के समान है, तो इसमें हंसी क्या हो सकती है और आनन्द कौन-सा मनाया जा सकता है? ९३ दुःख समुदय ____ दूसरा आर्यसत्य दुःखों के कारणों के विषय में है जिसे दुःख समुदय के नाम से जाना जाता है। समुदय का अर्थ होता है- कारण। दुःखों का मूल कारण है- जन्म-मरण के चक्कर को चलाने वाली 'तृष्णा'। भगवान् बुद्ध ने कहा है- हे भिक्षुगण, दुःख समुदय दूसरा आर्यसत्य है। दुःख का वास्तविक हेतु तृष्णा है जो बार-बार प्राणियों को उत्पन्न करती है, विषयों के राग से युक्त होती है तथा उन विषयों का अभिनन्दन करनेवाली होती है। यह तृष्णा तीन प्रकार की है- कामतृष्णा, भवतृष्णा तथा विभवतृष्णा।
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