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जैन एवं बौद्ध शिक्षा के उद्देश्य एवं विषय
(२३) वर्णिका - वृद्धि
(२६) लीलासंचरण
(२९) हेमरत्न-भेद
(३२) वास्तुसिद्धि
(२२) धर्मरीति
(२५) सुरभि तैलकरण
(२८) पुरुष - स्त्री - लक्षण
(३१) तत्काल-बुद्धि
(३४) वैद्यक-क्रिया
(३७) अंजनयोग
(४०) वचन-पाटव
(४३) मुखमण्डन
(४६) पुष्पग्रन्थन (४९) स्फार - विधि-वेश
(५२) भूषण परिधान
(५५) व्याकरण
(५८) केशबन्धन
(६१) अंकविचार
(६४) प्रश्नप्रहेलिका आदि ।
(३५) कुम्भ- भ्रम
(३८) चूर्णयोग
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(४१) भोज्य-विधि
(४४) शालिखण्डन
(४७) वक्रोक्ति
(५०) सर्वभाषा विशेष
(५३) भूत्योपचार
(५६) परनिराकरण
(५९) वीणानाद
(६२) लोकव्यवहार
(२४) सुवर्ण-सिद्धि
(२७) हय - गज - परीक्षण
(३०) अष्टादा-लिपि-परिच्छेद
(३३) काम विक्रिया
(३६) सारिश्रम
(३९) हस्तलाघव
(४२) वाणिज्य - विधि
(४५) कथा-कथन
(४८) काव्यशक्ति
(५१) अभिधान ज्ञान
(५४) गृहोपचार
(५७) रन्धन
(६०) वितण्डावाद
(६३) अन्त्याक्षरिका
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अतः कहा जा सकता है कि प्राचीनकाल में कलाओं का अध्ययन बहुत ही व्यापक रूप में होता था। बहत्तर कलाओं या चौंसठ कलाओं में जीवन के सम्पूर्ण दृष्टिकोणों का ज्ञान समाहित था। जैन शिक्षा प्रणाली की विशेषता कलाओं के चयन की इस दूरदर्शिता से ही परिलक्षित होती है। कलाओं के अध्ययन तथा इनके अभ्यास से जीवन में एक प्रकार की जागृति उत्पन्न हो जाती है तथा जीवन पूर्णता को प्राप्त करता है । गीत, नृत्य आदि मनोरंजन के विषयों की भी उपेक्षा नहीं की गयी है। शिल्प आदि कारीगरी की समस्त शाखाओं का समावेश किया गया है। यही नहीं बल्कि युद्ध-सम्बन्धी बारीक से बारीक तरीके भी बताये गये हैं । अतः यह कह सकते हैं कि इन कलाओं में शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक विकास की शक्ति निहित है ।
बहत्तर कलाओं के अतिरिक्त विद्यार्थियों को अन्य विषयों की भी शिक्षाएं दी जाती थीं। सामान्यतया शिक्षा केन्द्रों में वे ही विषय छात्रों को पढ़ाये जाते थे जिनसे उनका बौद्धिक विकास हो तथा जो उनके जीवन में उपयोगी हो सके । ७४ जैन ग्रन्थों में निम्नलिखित विषयों का वर्णन आया है
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