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जैन एवं बौद्ध शिक्षा के उद्देश्य एवं विषय कला है।
युद्ध- रणक्षेत्र में युद्ध करने की कला को युद्ध विद्या है। ‘समवायांग' में बाहुयुद्ध, दण्डयुद्ध, मुष्टियुद्ध, यष्टियुद्ध, युद्ध, नियुद्ध, युद्धातियुद्ध करने की कला को एक ही कला के अन्तर्गत रखा गया है।६५ ।।
नियुद्ध- विशेष युद्ध करने की कला, जैसे- कुश्ती लड़ने की कला को नियुद्ध की कला के अन्तर्गत रखा जाता है।
युद्धातियुद्ध- घमासान लड़ाई करने की कला को युद्धातियुद्ध कला कहा गया है।
अस्थियुद्ध- अस्थियों से युद्ध करने की कला अस्थियुद्ध कहलाती है।
मुष्ठियुद्ध- मुष्टि से युद्ध करना अर्थात् मुक्का या घूसा मार कर युद्ध करने की कला मुष्ठियुद्ध है।
बाहुयुद्ध- बाहुयुद्ध करने की कला जिसका दूसरा नाम मल्लयुद्ध भी है।
लतायुद्ध- लता के समान विरोधी को जकड़ लेना लतायुद्ध है। जिस प्रकार लता वृक्ष पर चढ़कर उसे जड़ से लेकर शिखर तक आवेष्टित कर लेती है उसी प्रकार जहाँ योद्धा-प्रतियोद्धा के शरीर को प्रगाढ़तया अपमर्दित कर भूमि पर गिरा देता है और उस पर चढ़ बैठता है।
ईषु-अस्व- वाणों और अस्त्रों को जानने की कला ईषु-अस्त्र है।
त्सरुप्रवाद-खड्गविद्या को त्सरुप्रवाद कहते हैं। खड्ग, तलवार आदि की मूठ बनाना इसका विषय है।
धनुर्वेद- धनुष-बाण-सम्बन्धी कौशल धनुर्वेद कला का विषय है। शब्दभेदी बाण आदि की विशिष्ट योग्यता का होना इस कला की विशेषता है।
हिरण्यपाक- चाँदी को गलाने, पकाने और भस्म आदि बनाने की कला हिरण्यपाक कला कहलाती है। ‘समवायांग'६६ में हिरण्यपाक, सुवर्णपाक, मणिपाक, धातुपाक आदि को एक ही कला के अन्तर्गत रखा गया है। कामसूत्र६७ में भी विभिन्न कलाओं के साथ हिरण्यपाक, सुवर्णपाक आदि कलाओं का वर्णन है।
सुवर्णपाक- सोने को गलाने, पकाने और उसके प्रयोग करने की कला सुवर्णपाक कला कहलाती है।
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