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जैन एवं बौद्ध शिक्षा के उद्देश्य एवं विषय समाज में शिक्षा का विषय माना जाता था।४५ उस समय समाज में बौद्धिक विकास और मनोविनोद के उद्देश्य से संगीत कला का बहुत ही महत्त्व था। ___वाद्य- वाद्य संगीत कला का एक अंग माना जाता है। 'राजप्रश्नीयसूत्र' में वाद्य कला के अन्तर्गत शंख, शृंग, भेरी, पटह आदि ५९ प्रकार के वाद्यों का उल्लेख मिलता है।४६ कादम्बरी' में भी वीणा, बांसुरी, मृदङ्ग, कांसा, मंजीरे, तूती आदि वाद्य कलाओं का उल्लेख मिलता है।४७
स्वरगत– 'समवायांग' में वर्णित ७२ कलाओं के अन्तर्गत स्वरगत, पुष्करगत और समताल आदि कलाओं का उल्लेख है।४८ स्वरगत कला के अन्तर्गत स्वर की विशेष शिक्षा दी जाती थी। जैन ग्रन्थों में सात स्वरों का वर्णन आया है जो निम्न हैंषड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, चैवत, निषाद आदि।०९
पुष्करगत- बाँसुरी, भेरी, ढोल आदि वाद्यों को अनेक प्रकार से बजाने की कला पुष्करगत कला है।
समताल - गायन व ताल के लयात्मक समीकरण का ज्ञान होना समतालकला है।
जुआ- जुआ खेलने की कला जिसके अन्तर्गत द्यूत, जनवाद आदि कलाओं का ज्ञान कराया जाता था। प्राचीनकाल में इसे मनोरंजन का एक साधन माना जाता था। 'ऋग्वेद' में अक्ष और पाश क्रीड़ा का उल्लेख है।५° अक्ष और पाश का अभिप्राय द्यूतक्रीड़ा से ही है। महाभारत की द्यूतक्रीड़ा तो जगतप्रसिद्ध है। इसी द्यूतक्रीड़ा के कारण पाण्डवों को निर्वासित जीवन बिताना पड़ा था। 'कामसूत्र' में भी इसे ६४ कलाओं के अन्तर्गत रखा गया है।५१
जनवाद- जनश्रुतियों और किंवदन्तियों को जानना जनवाद है। मनुष्य के शरीर, रहन-सहन, बात-चीत, खान-पान तथा हाव-भाव आदि के द्वारा उसका परीक्षण करना भी जनवाद की शिक्षा के अन्तर्गत आता है। 'समवायांग' में भी इसका वर्णन आया है।५२
पासा- पासों से खेला जानेवाला खेल इसके अन्तर्गत सिखाया जाता था। अष्टापद- शतरंज चौसड़ आदि खेलने की कला। पुरकृत्त- नगर संरक्षण की कला को जानना। दकमृत्तिका- जल और मिट्टी के संयोग से वस्तु का निर्माण करना।
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