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________________ जैन एवं बौद्ध शिक्षा के उद्देश्य एवं विषय कहा जा सकता है कि वासनाओं को क्षीण करने तथा समुचित आध्यात्मिक शक्ति की साधना के लिए शरीर, इन्द्रिय और मन को जिन-जिन उपायों से तपाया जाता है, वे सभी तप कहे जाते हैं। आगम के प्रसिद्ध चूर्णिकार जिनदासगणी महत्तर ने तप की व्युत्पत्तिजन्य परिभाषा करते हुए कहा है- 'तप्यते अणेण पावं कम्ममिति तपो, २७ अर्थात् जिस साधना-आराधना से, उपासना से पापकर्म तप्त हो जाते हैं उसे तप कहते हैं। तप के द्वारा ही आत्मा की सुप्त शक्तियाँ जागृत होती हैं, दिव्य बल प्रकट होते हैं। जितनी भी शक्तियाँ हैं, लब्धियाँ हैं, इतना ही नहीं केवलज्ञान और मोक्ष भी तप के द्वारा ही प्राप्त होते हैं। 'प्रवचनसारोद्धार' के अनुसार- 'परिणाम तव्वसेणं इमाइंहुति लद्वीओ,'२८ अर्थात् जितनी भी लब्धियाँ हैं वे सब तप के ही परिणाम हैं। तप केवल भौतिक सिद्धि और समृद्धि का प्रदाता ही नहीं है, बल्कि वह अनन्त आध्यात्मिक समृद्धि का प्रदाता भी है। त्याग- सामान्य रूप से त्याग का अर्थ 'छोड़ना' होता है। अप्राप्त भोगों की इच्छा नहीं करना और प्राप्त भोगों से विमुख होना त्याग है। नैतिक जीवन में त्याग आवश्यक है। बिना त्याग के नैतिकता का रहना सम्भव नहीं है। साधु जीवन और गृहस्थ जीवन दोनों के लिए त्याग धर्म आवश्यक बताया गया है। साधु जीवन में जो कुछ भी उपलब्ध है या नियमानुसार ग्राह्य है उसमें से कुछ को नित्य छोड़ते रहना या त्याग करते रहना जरुरी है। इसी प्रकार गृहस्थ को न केवल अपनी वासनाओं और भोगों की इच्छा का त्याग करना होता है, अपितु अपनी सम्पत्ति एवं परिग्रह से भी दान के रूप में त्याग करते रहना आवश्यक बताया गया है। आकिंचन्य- किसी भी वस्तु में ममत्वबुद्धि न रखना आकिंचन्य है। समाज में जितने भी अनाचार- हिंसा, झूठ, चोरी आदि, होते हैं उनमें से अधिकतर का मूल कारण संग्रहवृत्ति होती है और इसी संग्रहवृत्ति से बचना अकिंचनता का मुख्य उद्देश्य है। ___ ब्रह्मचर्य- निज आत्मा में लीनता ब्रह्मचर्य है, परन्तु लौकिक जीवन में ब्रह्मचर्य से तात्पर्य कामभोग के त्याग से लिया जाता है। पं० सुखलाल संघवी ने इसे परिभाषित करते हुए कहा है - त्रुटियों से दूर रहने के लिए ज्ञानादि सद्गुणों का अभ्यास करना एवं गुरु की अधीनता के सेवन के लिए ब्रह्म (गुरुकुल) में चर्य (बसना) ब्रह्मचर्य है।२९ यहाँ पण्डितजी ने ब्रह्म का अर्थ गुरुकुल ग्रहण किया है। गृहस्थ और उपासक दोनों के लिए ब्रह्मचर्य धर्म आवश्यक बताया गया है। दोनों को अपनी-अपनी मर्यादा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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