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________________ ४२ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन जाता था, किन्तु 'दशवैकालिक' की रचना के पश्चात् वह ‘दशवैकालिक' के बाद पढ़ा जाने लगा।६० प्रस्तुत ग्रन्थ में दश अध्ययन हैं जिनमें पाँचवें अध्ययन में दो उद्देशक तथा नवें अध्ययन में चार उद्देशक हैं। शेष अध्ययनों में उद्देशक नहीं हैं। इस ग्रन्थ में गद्य एवं पद्य दोनों का समावेश है। चौथा व नौवां अध्ययन गद्य-पद्यात्मक है, बाकी अध्ययन पद्यों में निबद्ध हैं। नवें अध्ययन में विनय-समाधि का वर्णन किया गया है। नवम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में विनीत तथा अविनीत के लक्षण व आचार्य की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है। शिष्य का आचार्य के प्रति कैसा व्यवहार होना चाहिए, इसका निरूपण किया गया है। कहा गया है कि यदि शिष्य अनन्त ज्ञानी भी हो जाये तो वह आचार्य की आराधना उसी प्रकार करता रहे जिस प्रकार वह पहले करता आया है और जिस गुरु के पास धर्मपद सीखता है, उसके प्रति विनय का प्रयोग करे।६१ जो शिष्य गुरुओं के प्रति आशातना करते हैं वे उस पुरुष के समान हैं जो जलती हुई अग्नि को अपने पैरों से कुचलकर बुझाना चाहते हैं। साथ ही आचार्य को मेघरहित आकाश में शोभायमान चन्द्रमा के समान भिक्षुओं के मध्य शोभित होना बताया गया है।६२ . द्वितीय उद्देशक में विनय और अविनय के फल बताते हुए कहा गया है कि अविनयशील विपत्ति में पड़ता है और विनयशील सम्पत्ति को प्राप्त करता है। जो आचार्य, उपाध्याय आदि की सेवा-शुश्रूषा करते हैं, उनकी शिक्षा जल से सींचे हुए वृक्षों की भाँति पल्लवित होती है और दुर्वचन बोलनेवाले, कपटी, धूर्त शिष्य संसार-सागर के प्रवाह में उसी प्रकार गोते मारते हैं जिस प्रकार जल-प्रवाह में पड़ा हुआ काष्ठ। शिष्य के कर्तव्य को उद्बोधित करते हुए कहा गया है कि वह अपनी शय्या, स्थान और आसन को गुरु से नीचे रखे, विनयपूर्वक उनकी वन्दना करे। तृतीय उद्देशक में शिक्षार्थी के गुणों की महिमा बतायी गयी है। जो पीछे से अवर्णवाद नहीं बोलता, सामने विरोधी वचन नहीं कहता, जो निश्चयकारी और अप्रियकारिणी भाषा नहीं बोलता, वह सर्वत्र पूजनीय होता है। चतुर्थ उद्देशक में विनय-समाधि के चार स्थानों का वर्णन है- विनय-समाधि, श्रुत-समाधि, तप-समाधि और आचार-समाधि। पुनः चारों के चार-चार भेद बताये गये हैं। इस प्रकार विनय के सोलह प्रकार हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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