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________________ ३६ जैन एवं बौद्ध शिक्षा-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन पड़ती। घर में बीज से पौधा का न निकलना तथा मिट्टी में डालने पर बीज से पौधा का निकल जाना यह प्रमाणित करता है कि बीज प्रत्येक क्षण में बदलता रहता है। इसी प्रकार विश्व की प्रत्येक वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं, क्षणिक हैं। अनात्मवाद अनात्मवाद का सिद्धान्त भग न् बुद्ध ने ब्राह्मण दर्शन के आत्मवाद के निषेध के रूप में दिया है। ब्राह्मण दर्शन में आत्मा को नित्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव माना गया है। संसार में आत्मा ही परम् प्रिय वस्तु है तथा संसार में जो भी प्रिय वस्तु हैं वे सब आत्मा के कारण ही हैं। * त्मा की कामना के लिए सब प्रिय होता है। आत्मा के लिए प्राणी सखों की कामना करता है। यहाँ तक कि स्त्री, पुत्रादि के प्रति जो हमारी आसक्ति है, वह इसी आत्मरूपी स्वार्थ पर अवलम्बित है और जब तक व्यक्ति आत्मरूपी सभी प्रकार की कामनाओं का त्याग नहीं कर लेता तब तक उसे मुक्ति या निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती है। बुद्ध ने आत्मा की सत्ता का परिहास करते हुए कहा है- जो यह मेरी आत्मा अनुभवकीं है, अनुभव का विषय है और जहाँ-तहाँ अपने बुरे कर्मों के विषयों का अनुभव करती है, यह मेरी आत्मा नित्य, ध्रुव, शाश्वत तथा अपरिवर्तनशील है, अनन्त वर्षों तक वैसी ही रहेगी- हे भिक्षुओं, यह मानना दृष्टिविशूक है।३२ हम जिसे नित्य, ध्रुव, शाश्वत और अपरिवर्तनशील समझते हैं, वह अनित्य, अध्रुव, अशाश्वत और परिवर्तनशील है। रूप वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान सारे धर्म अनात्म हैं।२३ इतना ही नहीं बुद्ध ने चक्षु आदि इन्द्रियाँ, उनके विषय, उनसे होने वाले ज्ञान, मन, मानसिक धर्म और मनोविज्ञान आदि सबको अनित्य, दुःखात्मक तथा अनात्म घोषित किया है। बुद्ध ने कहा है कि आत्मा की सत्ता को स्वीकार करना उसी प्रकार हास्यास्पद है जिस प्रकार कोई व्यक्ति देश की सुन्दर स्त्री से प्रेम करता है, परन्तु न तो उसके गुणों से परिचित है, न उसके रंग से, न उसका कद ही जानता है कि वह बड़ी है अथवा छोटी या मझोली और न उसके नाम, गोत्र से ही भिज्ञ है।३४ अभिप्राय यह है कि व्यक्ति आत्मा के गुण-धर्म को जाने बिना उसके सुख के लिए नाना प्रकार के कर्मों को करता है। परन्तु मन में सवाल उत्पन्न होता है कि आत्मा जिसे नित्य ध्रुव माना गया है उसे बुद्ध ने अनात्म घोषित किया, आखिर क्यों? जैसा कि बुद्ध का मानना है कि आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करना ही सभी दोषों का मूल है। इसकी पुष्टि नागार्जुन के इस कथन से होती है कि जो आत्मा को देखता है उसी पुरुष का 'अहं' के लिये सदा स्नेह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002081
Book TitleJain evam Bauddh Shiksha Darshan Ek Tulnatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size10 MB
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